Sunday, September 20, 2015

मत कह दिजो मन की पगले, -शब्द मसीहा की कविता

(यह रचना मेरे परम मित्र शब्द मसीहा की है -तिलक) 
मत कह दीजो मन की पगले, 
यहाँ कौन समझने वाला है। 

मत कह दीजो मन की पगले, 
यहाँ कौन समझने वाला है 
चमके-चमके सब चेहरे हैं, भीतर में बहुत कुछ काला है।

रख भाव ह्रदय में रो लीजो रख लीजो बंद कपाट मन के 
मत रखियो चाह कभी मन की यहाँ कौन समझने वाला है।

मत कह दिजो मन की पगले, 
यहाँ कौन समझने वाला है 
चमके-चमके सब चेहरे हैं, भीतर में बहुत कुछ काला है

कहाँ ज्ञान बघार रहा पगले यहाँ सभी लोग ज्ञानी ठहरे
हंसकर भी क़त्ल ये कर देंगे कोई रहम न खाने वाला है।

मत कह दिजो मन की पगले, 
यहाँ कौन समझने वाला है 
चमके-चमके सब चेहरे हैं, भीतर में बहुत कुछ काला है

सब चढ़ते सूर्य को नमन करें अस्ताचल सूर्य नहीं भाता 
ये मन डूबा -डूबा जाता है यहाँ कौन उबारने वाला है
 

मत कह दिजो मन की पगले, 
यहाँ कौन समझने वाला है 
चमके-चमके सब चेहरे हैं, भीतर में बहुत कुछ काला है 

मत रखियो माँग कभी इनसेइन्कार ही सदा तू पायेगा 
सीने की जलन तेरी पगले यहाँ कौन बुझाने वाला है।  

मत कह दिजो मन की पगले, 
यहाँ कौन समझने वाला है 
चमके-चमके सब चेहरे हैं, भीतर में बहुत कुछ काला है 

अपने लब (होंठ) सी कर रख लीजो मन की मन में रखियो आस 
सब ही प्यास बढाकर जायेंगे न कोई प्यास मिटाने वाला है।  

मत कह दिजो मन की पगले, 
यहाँ कौन समझने वाला है 
चमके-चमके सब चेहरे हैं, भीतर में बहुत कुछ काला है 
"अंधेरों के जंगल में, दिया मैंने जलाया है | 
इक दिया, तुम भी जलादो; अँधेरे मिट ही जायेंगे ||" -युगदर्पण

पत्थर, मानव और कर्म फल

आज़ाद कलम काव्य का प्रारम्भ1971 (भारत पाक युद्ध) से -तिलक 
Image result for lekhaniआज 44 वर्षोपरांत वेब की प्रथम रचना 
कवि, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार तथा 2001 से संपादक युगदर्पण साप्ताहिक, 
2010 से नेट पर 30 विविध ब्लॉग 4 वर्षों में 75 से अधिक देशों, 11952 पाठकों में पहचाने जाते - 
फे बु, के 9 समूह, 7 पेज, ट्वीटर, रीडिफ़ के अतिरिक्त 5 उपभक्ता चैनल का युगदर्पण मीडिया समूह- YDMS 
पत्थर, मानव और कर्म फल 
उत्तिष्ठत! जागृत !! प्रकाश की भीख नहीं मांग, अंदर स्फुटित कर -
पत्थर और मानव, भाग्य तो दोनों का एक समान निर्भर ही हैं,  
तथा दोनों अपने -2 कर्म फल एक समान ही भोगते मिलते हैं।  
पत्थर, जो कहने को एक कठोर महत्वहीन अस्तित्व ही तो है।  
मानव अस्तित्व भी महत्वहीन बन जाता है, कर्मविहीन हो कर  
दोनों की ही मुक्ति, शुभ अशुभ है, तभी उसके उद्धारक पर निर्भर  
समयानुसार वही हर सांचे में ढल जाने की तत्परता भी रखते है, 
जैसा जैसा आकार लिए बनते हैं, यथानुसार स्थान भी वे पाते हैं। 
एक उदाहरण पत्थर को ही लो, जब ये राह में 'जड़' पड़ा होता है 
यही सबको ठोकर देता भी, और स्वयं सबसे ठोकरें खाता भी है। 
यही, निज जड़ता का त्याग कर, जिस दिन भी चेतन है बन जाता,  
भले, जड़ता व निज का त्याग कर, किसी की नींवमें चुनाहै जाता,  
तब वही नींव का पत्थर कहाता व जग में त्याग की प्रशंसा पाता 
भाग्य जब महा शिल्पकार के हाथ पहुंचा दे तो वाह वाह हो जाये, 
भाग्य शिल्पकार के हाथों भगवान की मूर्ति बनवा दे पूजा जाये। 
क्यों, मानव होकर भी 'जड़वत' पड़ा राह में, यूँ ठोकरें खाता है ?  
तू मानव है, तो बुद्धि से मानव होने का परिचय भी दे, कुछ सीख।  
है यही धर्म, चेतन जगा ओ दिखा कर्म, न ले आरक्षण की भीख, 
क्या, पत्थर से भी जड़ है रे? जो चेतन अपना है नहीं जगा रहा।   
पत्थर, भी चेतन हो बदल गया, तूँ पत्थर सा जड़ बन पड़ा रहा। 
उठ जाग, कर्म कर ले थोड़ा, विश्वास कर्म में रख, वो है खेवनहार 
आरक्षण तो प्रतीक है, दुर्बल -अक्षम होने का, ये तेरे मन की हार।  
"अंधेरों के जंगल में, दिया मैंने जलाया है |
इक दिया, तुम भी जलादो; अँधेरे मिट ही जायेंगे ||" युगदर्पण