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Monday, July 12, 2010

तुम

मेरे दिल में क्या है जो तुम देख पाते
खुदा की कसम तुम न यूँ रूठ पाते

तुम जो गए हो तो दिल है ये सूना
क्यूँ इतनी थी जल्दी कुछ तो बताते

है बेचैन दिल ये , नहीं चैन इसको
करें क्या हम कुछ समझ ही न पाते

तनहाइयों के रंग बड़े ही अज़ब हैं
जुदाई सहें कैसे हमें तू ही बता दे

अब छा गया है मेरे हर सू अँधेरा
खुशियों को तुम बिन कैसे सदा दें

तुम ही हो साज इस जीवन के मेरे
"कादर" कैसे सजें सुर तू ही बता दे

केदारनाथ"कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Wednesday, June 30, 2010

टोपी धारी किन्नर

तुम प्रजातंत्र का नाम लेकर
पीटते रहो ढोल वाह वाही के
और वो तुम्हारे देश में ही
पले कुत्ते , देखें तुम्हे घूरकर
झाग उगलते चीखते चिल्लाते
कहते रहो- देश को माँ भारती
वो तुम्हारा राष्ट्रीयगान नहीं गायेंगे
पोंछेंगे तुम्हारे झंडे से अपने जूते
तुम अहिंसा का राग अलापते हो
अहिंसा कायरो को शोभा नहीं देती
तुम्हे कश्मीर में सरकार चाहिए अपनी
इसलिए बेच दी है भावनाएं देश की
तुम समझौता चाहते हो देशद्रोहियों से
कर साल अरबों रुपये लुटाते हो उनपर
वो तुमपर थूकते हैं, भागते हैं पाकिस्तान
सीखने नए पैंतरे तुम्हे काटने के लिए
तुम्हारे अपने देश के कश्मीरी बच्चे
बिकते हैं सिर्फ दो दो सौ रपये में
मारने को पत्थर तुम्हारे जवानों पर
बैठे रहो सीमाओं पर करते रहो रक्षा
बाहर को देखते हुए अपने दुश्मन
और वो साले लड़ाते रहें तुम्हें
धर्म और इस्लाम के नाम पर
वो इस्लाम का "इ" नहीं जानते
मगर जानते हैं तुम्हारी कमजोरी
जीतकर हारने की तुम्हारी आदत
देखते रहो सपना पूरे कश्मीर का
बिना कुर्वानी कुछ नहीं मिलता
शिखंडी सरकार के नुमाइन्दे सिर्फ
भौंकना जानते हैं, सिपाहियों से घिरे
कभी कुछ बोल भी दिया जोश में
आलाकमान बुलाकर धमका देती है
अरे कुर्सी से चिपके हुए पिस्सुओ
तुम से कुछ नहीं होता तो छोड़ दो
आगे आने दो हिजड़ों को भी
शायद वो ही बचा सकें देश की इज्ज़त
क्योंकि उनके मरने पर कोई नहीं रोता
अपने क्रिया कलापों से तुम ही हो
इस संसद के टोपी धारी किन्नर

केदारनाथ" कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Wednesday, June 23, 2010

माया

खेल अनोखा पागल मन का , बिलकुल समझ न आये
पानी, पानी बिच रहे बुलबुला , काहे ये अलग कहाए

जीवन है क्षणभंगुर ऐसा , पानी के बुलबुले के जैसा
कुछ भी अलग नहीं दोनों में, बात समझ नहीं आये

मूल में आकर मिलना है, भेदन करके रूप नए का
द्वैत मिटाना है अंतर से , यही जीवन लीला कहलाये

मूल से मिल मूल जान ले, अलग नहीं तू सत्य मान ले
अलग अलग का भान ही तेरा, "कादर" माया कहलाये

केदारनाथ" कादर"kedarrcfdelhi.blogspot .com


"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, June 21, 2010

सदा ए वक़्त

जब तलक फिर से लहू बहाया न जायेगा
मुल्क बरबादियों से बचाया न जायेगा

किससे करें शिकायत, शिकवा, सब हैं चुप
बिन शोर नाखुदाओं को जगाया न जायेगा

माना हैं बिगड़े मुल्क के मेरे हालात दोस्तों
क्या एक नया इन्कलाब लाया न जायेगा

खुदगर्ज़ रहबरों की है बारात मुल्क में
क्या फ़र्ज़ का सलीका सिखाया न जायेगा

जब तक सुकून से नहीं मुल्क का हर शख्स
सोने का फ़र्ज़ "कादर" निभाया न जायेगा

केदारनाथ" कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Sunday, June 20, 2010

बदल नहीं सकती

माना हमने दर्द की शाम ये ढल नहीं सकती
जलाकर दिल क्या किस्मत बदल नहीं सकती

वो जो कहते थे अक्सर "बेवफा" मुझको
उनकी क्या आदत ये बदल नहीं सकती

ये बात और है लिखा है किस्मत में डूबना
कोशिशों से क्या इबारत ये बदल नहीं सकती

माना मुश्किल है ठहरना मेरी मौत का यारो
उनके आगोश में क्या मौत ढल नहीं सकती

हमने चाहा है जिसे अपनी रूह की मानिंद
बेवफा "कादर" चुरा नज़रें निकल नहीं सकती


केदारनाथ "कादर"
kedarrcftkj.blogspot.com

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Tuesday, June 15, 2010

ज़िक्र न करना


उसने कहा है देके कसम, मेरा ज़िक्र न करना
आ जाये गम गले तक भी, मेरा ज़िक्र न करना

माना अकेले होंगे तुम, हर मोड़ पर -ऐ- दोस्त
रूह जब्त न कर पाएगी सितम, मेरा ज़िक्र न करना

आँखों में उमड़ते रहें चाहे तेरी, अश्कों के समंदर
तुम डूबती कश्तियों से भी, मेरा ज़िक्र न करना

दुश्मन से न कहना बर्बादे मुहब्बत का ये किस्सा
खामोश निग़ाह दोस्तों से भी, मेरा ज़िक्र न करना

न सोचना की अंधेरों में, अकेले हैं हम कहीं
तेरा रोशन चिरागे याद है, मेरा ज़िक्र न करना

हम खुद ही हुए जाते हैं दफ़न अपने सीने में
"कादर" हों सामने भी अगर, मेरा जिक्र न करना


केदारनाथ"कादर"
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Wednesday, June 9, 2010

मरा हुआ प्रजातंत्र

तुम्हारा प्रजातंत्र - सिर्फ एक
बुचडखाने की तरह है
जिसके अन्दर हर एक नेता
सफ़ेद कपडे पहने कसाई है
जो जिबह कर देना चाहता है
तुम्हारी हर ख़ुशी- सिर्फ
अपनी ख़ुशी और कुर्सी के लिए
वो निकाल लेना चाहता है -चूसकर
तुम्हारी हड्डियों की मज्जा -ताकि
चिपका रहे कुर्सी से -उल्लू
अपनी मौत तक -तुम्हारी बद्दुआओं से

बहुत खुश होते हो
सबसा बड़ा प्रजातंत्र कहलवाकर
कौन सा तंत्र तुम्हारा काम करता है
न व्यवस्था ,न न्याय और न खुफिया
हर जगह मच्छर से देश
तुम्हारे शरीर पर काटतें हैं
तुम सिर्फ खुजाकर रह जाते हो

तुम्हारे देश के हिजड़े न्यायतंत्र की ताकत
पच्चीस वर्ष बाद २५ हजार मौतों का न्याय
एक देश तुम्हे भूलने को कहता है
तुम्हारी २५ हजार मौतें अतीत मानकर
और तुम भी तैयार हो,कोई सौदा हो जाये
तुम्हारे नेता खा लें -घूस मोटी सी
बनने के लिए मुखिया हिजड़ों की पार्टी का

तुम कानून हाथ में मत लेना
भोपाल में तुम्हारा कोई थोड़े ही मरा था
वो तो भोपाल वाले सोचेंगे
मंच बनायेंगे , प्रजातंत्र हिला देंगे-चीखेंगे
सरकार गिरा देंगे- बार बार चिल्लायेंगे
साले वो भी विपक्ष के कहने पर

तुम ने गिरवी रख दिया है- साहस
बेच दी है-आवाज, पहनी हैं -चूड़ियाँ
तुम अपने देशवासियों के लिए
आवाज नहीं उठा सकते
तुम नपुंसक - प्रजातंत्र का राग अलापते रहो
वो तुम्हारी बहन बेटे बेटियां मारकर
कहते रहेंगे- भूल जाओ पुरानी बातें

नया समझौता जरुरी है- दलाली के लिए
ताकि प्रजातंत्र के पिस्सुयों की औलादें
जिन्दा रह सके, पाप की कमाई की दलाली पर
ऊँचे महलों में, मर्सिडीज गाड़ियों में
हमारी तुम्हारी माँ बेटियों को
कुचलने नोचने के लिए सदा की तरह

मगर तुम मत सोचना , मत जागना
ये प्रजातंत्र है हर काम- नेता करेगा
इसीलिए तो अब इन्सान पैदा नहीं होते
पैदा होते हैं नेता , गली में , नुक्कड़ पर
अभाव की कोख से जन्मे -नाजायज, भूखे
नाख़ून दिखाते , झाग उगलते, बाल नोंचते
तुम्हारा प्रजातंत्र बचाने के लिए
जो बस देख रहे हैं अर्थव्यवस्था की ऊंचाई
जैसे एक बालक- खेत की मेढ़ पर
अपना शिशन पकडे देखता है मूत की धार
जो निचे आते आते रेत हो चुका होता है

केदारनाथ"कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Tuesday, June 1, 2010

नेता जी के नाम

दोस्तों मेरी ये कविता उन नेताओं को समर्पित है जो शायद ही इसे समझ सकें, क्योंकि अगर वो समझ सकते तो ऐसी कविता मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं होती. आज केवल कुर्सी का खेल चल रहा है. सब एक दूसरे के चुतड पोंछ रहें हैं उन्ही गंदे सने हाथों से ताकि कोई भी ये न कह सके की हम साफ हैं. आज नेतागिरी के नाम पर बेगुनाह लोगों को जलाया जा रहा है. रोटी का इंतजाम करने के बजाय गोलियां बरसाई जा रही हैं. पीने के पानी की मांग करो तो वाटर केनन की मार मिलती है. जिस देश में "दूध बेचा पूत बेचा"
कहा जाता था वहां पर बोतल बंद पानी पंद्रह रुपये में मिलता है. आजादी के साठ साल बाद भी हर चौराहे पर भिखारी दिखाई देतें हैं. हर रोज़ अख़बारों में गंद भरा हुआ परोसा जाता है. समाज को राह दिखाने वाले अख़बार कॉल गर्ल्स के मसाज पार्लर के नंबर छापते हैं , देश को गर्त में धकेलने के लिए, न की उन लोगों का पता पुलिस को देते हैं , वृद्ध केसरी क्लब चला कर , बाप और दादा की हत्या को शहीदी का नाम देकर चंडी चमका रहे हैं. अगर उनके बाप या दादा ने अच्छा कम किया तो इसके लिए उन्हें धन्यवाद, लेकिन कभी ये भी सोचो किस मकसद से ये अख़बार चलाये थे उन्होंने. बाप बेटी साथ बैठकर अख़बार नहीं पढ़ सकते. कहने को हर एक मंत्रालय है, मंत्री हैं नेता हैं पर सब...साल...ए. ... अकल से पैदल सत्ता कामनी की गोद में अपने को स्खलित कर रहे हैं ताकि और भी खूंखार जानवर पैदा हों उनके दूषित रक्त से . कोई नेता तो पढ़ेगा नहीं . शायद कोई चमचा या दिल जला ही कभी उन्हें उनके कर्मों के दर्शन करा दे.


नफरतों से प्यार की, हर हद मिटा दी आपने
दिल में जो रोशन शमा थी वो बुझा दी आपने

जान की बाजी लगा दी आपकी हर बात पे
किस तरह ये जां बचे, कैसी सजा दी आपने

आपकी आमद से दिल का सुकून जाता रहा
जाने किन शैतानों को सदा दी आपने

जख्मे दिल खिल उठे, आपके इस प्यार से
जिंदगी की शक्ल में,क्या मौत दी है आपने

हर उजाला जिंदगी से दूरतर होने लगा
ऐसी बदअमनी हुज़ूर फैला दी है आपने

हम खुदा के बंदा-ए-नाचीज हैं और कुछ नहीं
"कादर" खुदकशी कर ले वो हालत बना दी आपने.

केदारनाथ "कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, May 24, 2010

टेंडर

जिंदगी के टेंडर में क्या स्पेसिफिकेशन सही थी ?
क्या ड्यू डेट सही थी ?ओपनिंग वेन्यु सही था ?
यही सवाल कौंधते रहते हैं, हर रोज़ इधर उधर,
परचेज आर्डर शायद सही ड्राफ्ट नहीं हुआ होगा I
तभी तो सामान की सपुर्दगी डिमांड के अनुसार नहीं,
"औडिट" कराना पड़ेगा, इन्सपेकशन में कोई कमी है I
"सेल्फलाइफ" एक्सपायर माल की डिलीवरी हुई है,
माल एक्सेपटेबल नहीं है, रिजेक्शन कर वापिस भेजिएI
पूरा जीवन परचेज की टर्म्स से भरा पड़ा है,
जीवन फाइल नहीं है पर नेगोशियेशन है I
आपकी असेप्टेबिलिटी "प्राईस रिडक्शन" पर हो सकती है,
दूसरा माल कोच में लगाना जरुरी है,
रिस्क परचेज मजबूरी है I
पर इंसान माल नहीं है, सामान और स्टोर नहीं है,
डिलीवर्ड स्टोर में दोष तो "कादर" मेन्युफेक्चरर का है I
प्रार्थना है अगली बार टेंडर सही होगा ,
अगर नहीं हो तो मुझे ही सेंपल मान लिया जाये इ

केदारनाथ"कादर"
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Monday, May 17, 2010

भ्रष्टाचार

हम जितना सच से शरमाते जाते हैं
हम उतने ही सभ्य हुए से जाते हैं
नियमों और कानूनों में क्या रखा है?
झूठ से यारो माल कामये जाते हैं

जब भी पूछो वे हंसकर कहते हैं
पद सब कुछ है, नोटों का भी पेड़ यही
सोने चाँदी के ताजों से हैं सजे हुए
मित्वयी होने का जो पाठ पढाये जाते हैं

किस्मत रोज़ कहाँ लेती है अंगड़ाई
साधू भी कमसिन की बाँहों में पाए जाते हैं
जो करते निर्माण नियम कानूनों का
सदा तोड़ते उनको पाए जातें हैं

शब्दों की भी पीर उन्हें नहीं लगती है
गाँधी जी से कान खुजाये जाते हैं
कौन सुना करता है नीचे वाले की आवाज
नीचे वालों को तो सभी दवाये जाते हैं

महामारी है मन का काबू न रहना
संत लोग कब से बतलाये जाते हैं
व्यभिचार के भूत छिपे हर कोने में
भ्रष्टाचार का सिर सहलाये जाते हैं

दोषी तुम हो , दोषी हम हैं
चुप चुप सब सहते जाते हैं
कितने हैं हम सोच के अंधे
घाब कहीं, कहीं मरहम लगाये जाते हैं

ये स्मरण हमें रखना होगा
भ्रष्टाचार का दलन करना होगा
पूरा जीवन ही अध्यात्म है
हम फिर से दोहराए जाते हैं

यही पंथ है सर्वोन्नती का
स्वतंत्रता से चुनना होगा
"कादर" बात सभी लोगों को
कब से बताये जाते हैं

kedarnath"kadar"
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Monday, May 10, 2010

सोचता था उम्र भर, दीप बनकर जलूँ
बन ज्योति हाथ हाथों में लेकर चलूँ

मगर मुझको भी इस तिमिर ने छला
उजले घर , लेकिन सोच उज्वल कहाँ है

अब तो नज़रों का है धोखा भीड़ भी
भीड़ में भी शख्स अकेला ही खड़ा है

पास रहकर भी रहे हम दूर जैसे
संग सांसों के घुटन का सिलसिला है

काफिले कितने ही कायरों के है यहाँ
दोस्त भी पिछले मोड़ से मुड़ गया है

नींद नहीं ,तकिया कोहनी का लगाकर
डर लुटने का घर मन में कर गया है

सोचता हूँ कुछ धरोहर छोड़ने को लिखूं
"कादर" हर व्यथा जैसे मेरी ही कथा है

केदारनाथ "कादर"



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Thursday, May 6, 2010

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था
दिल लुटाने वाला भी हमसा कोई मासूम था

प्रेम का दरिया बनकर कोई उमड़ा क्या करें
दिल मेरा छोटा प्यार तेरा कहाँ समाएगा

देख आँखों में मेरी सागर तुझे मिल जायेगा
दर्द ही नहीं प्यार में करार भी मिल जायेगा

दर्द सिने का मेरे तुमको जब लगेगा अपना सा
तब इन लफ़्ज़ों का फासला भी फ़ना हो जायेगा

मगरूर न कहना हमें बन्दे खुदा के हम भी हैं
मुहब्बत में "कादर" दिलबर में खुदा मिल जायेगा

केदारनाथ "कादर"

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Tuesday, May 4, 2010

नेता

चुनाव से भाग्य बदलने की सोच
गरीब आदमी की बेबसी और मूर्खता है

चुनाव महज गुंडा चुनने की कवायद है
जो तय करता है गुंडे का कद और अधिकार
बेइज्जत नेता भी माननीय लगवाता है
नाम के सामने चुनाव जीतने के बाद

चुन कर आने पर उसे हक़ है
हमारी बहन बेटियों की इज्ज़त लूटने
गरीबों का हिस्सा छीनने का
सांड बनकर चढने का निर्वलाओं पर

ये आम आदमी को देते हैं
झूठी तसल्ली के लिए RTI का हक़
और इसकी ही आड़ में करते है
हमारी ही कंवारी इच्छाओं का शीलभंग

केदारनाथ "कादर"




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परेशानियाँ

जीवन है तो होंगो ही वो
कहते हैं जिनको परेशानियाँ
चलती रहती हैं साथ वो
बन के जीवन की परछाईयां

ये दोस्त हैं हमारी ही तो
मिलाती हैं एक दूजे से परेशानियाँ
उस खुदा को भी यद् करते तभी
जब वो देता है हमको परेशानियाँ

शुक्रिया शुक्रिया परेशानियों शुक्रिया
तुम्हारी मेहरवानियों ने पता उसका दिया
भूल ही बैठे थे खुद बनकर खुदा
तुमने सिखाया हम हैं क्या ? शुक्रिया

परेशानियाँ ही जोडती है हमें
ये करती हैं हम पर मेहरवानियाँ
याद आया खुदा पाकर तुम्हे
"कादर" परेशानियों को शुक्रिया शुक्रिया

केदारनाथ "कादर"

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Friday, April 23, 2010

नए मानव का सृजन

आज अनेकों उपदेशक है धर्म के
किन्तु कोई भी नानक या कबीर नहीं
खेती की बात सभी करतें है लेकिन
मन के खेत सभी के हैं सूख
दुनिया की धन दौलत और मान के
सब के सब भूखे माया और मान के
कौन चाहता है शांति जीवन में ?कौन धर्म को होना चाहता है उपलब्ध ?कौन चाहता है सत्य का अन्वेषण ?कौन चाहता है मन भूमि का सिंचन ?चाहत है यदि परमेश्वर की मन में ?बीज सरलता का रखना होगा मन में
हृदय द्वार ईश्वर सब के खटकाता है
बीज प्रेम का समरूप सदा बिखरता है
किन्तु असत्य और धोखा मन का
इस बीज के अंकुर को खा जाता है
हृदय भूमि है जहाँ कठोर और काँटों भरी
सत्य नहीं उगता कभी ऐसे मन में
साधना हर स्वांस में जब होगी तभी
आराधना हर स्वांस में जब होगी तभी
मन के द्वार जब सब पे खुल जायंगे
मोक्ष और अपवर्ग सुख धरा पर आएंगे
हर जर्रा तभी तो बनेगा आफ़ताब
हम तभी सच में भारतीय बन पाएंगे
सत्य मिलन की अभिलाषा है यदि मन में
हल सरलता का चला डालो मन में
बीज परमेश्वर का पल्लवित पुष्पित होगा
फैल जाएगी सुगंध तब चहुँ ओर ही
तब उसी इश्वरत्व की सुगंध से
"
कादर" नए मानव का सृजन होगा
                      केदारनाथ "कादर"

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खेल

अब मजदूरों की कौन सुने ?
अब मजबूरों की कौन सुने ?
सत्ता के गलियारों में हैं -
गाँधी जी के बन्दर बैठे
वे बोल रहे हैं बे तोले
वे सुनतें हैं दे अंगुली कान
आँखों पर पट्टी बांध रखी
करतें हैं खेलों का गुणगान
कहीं तोड़ रहे हैं सड़के
कहीं पर करते हैं निर्माण
ताकि इन सब की आड़ में
मुनाफे का बना सकें सामान
क्या देश को खेल ही चाहियें ?
क्या देश में नहीं समस्या है ?
क्या एकाएक गरीबी गायब है ?
लीपा पोती से क्या होगा ?
अब भी लोग सड़कों पे सोते हैं
बच्चे भूखे अभी भी रोतें हैं
मरतें है लोग बिना दवाई के
बिन कपड़ों के लोग होतें है दफ़न
अभी पहुंची नहीं हैं किताबें
नहीं देखा है स्कूल का मुहं
जहाँ पता नहीं कहाँ रहते हैं
उस देश में खेल तमाशा है
ये खेल नहीं अय्यासी हैं
गरीबी की खिल्ली बदमाशी है
भूखे नंगे क्या खेलेंगे
बस हार का दंश ही झेलेंगे
इतना पैसा गर कहीं और
सही तरह कहीं पर लग जाता
कितने भूखे प्यासों को "कादर"
कुछ दिन जीने को मिल जाता
केदारनाथ "कादर"
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Wednesday, March 3, 2010

मन का बसंत
बसंत सब का तो नहीं हो सकता समय के साथ
लेकिन समय अगर अच्छा हो तो बसंत ही होता है
     हाँ ये बात और है कि ऐसा कभी कभी होता है
     इसलिये इश्वर ने भी एक ही बसंत बनाया है
मगर वह प्रभु समझ से परे की चीज़ है
इसलिये मन का बसंत हमेशा के लिए बनाया है
     जो किसी बादल के पानी का मोहताज नहीं है
     कभी आंसुओं से हरा होता है कभी आंसुओं में डूबता है
बसंत मन का कर सकते हो हमेशा के लिये
अगर दूसरों के आंसू पी सकते हो "कादर" हँसते हुए
केदार

Tuesday, February 23, 2010

Tuesday, 23 February 2010


अधूरे -पूरे

मैं उसे देखकर व्यथित था
उसकी उम्र और देह गोलाइयों से
उसमे क्या कोई भी कमी थी
बस वह चल ही तो नहीं सकती थी

हाँ वह विकलांग थी पैरों से
मुस्कुराती थी बहुत बातें बनाती थी
रोज़ मिलती थी मुझे बस स्टैंड पर
वह वैसाखियों से चलती थी

हाँ वह वैसाखियों से सिर्फ चलती थी
लेकिन उसकी तमन्ना थी उड़ने की
उसके विचार थे प्रेम से सने
वह दयामूर्ति थी दया की पात्र नहीं

हाँ, वह दया की पात्र नहीं थी
वह अन्दर से मजबूत और उत्साही थी
वह जीवन सिखाने आई थी
अपनी मौजूद सभी कमियों के साथ

हाँ अपनी सभी कमियों के साथ जीना
जान लेने के बाद बड़ा मुश्किल होता है
लड़ना खुद से आसन कहाँ होता है
वह लडती थी दौड़ती दुनियां से

हाँ वह लडती थी दौड़ती दुनियां से
उसमे जज्बा था कन्धा मिलाके चलने का
उसे कमी का एहसास ही नहीं था
उसकी शादी होने वाली थी

हाँ उसकी शादी होने वाली थी
जाने वाली थी एक नई दुनिया में
मगर आधे अधूरी सोच के लोगों ने
अपने जैसा मानने की कीमत मांगी

हाँ अधूरे लोगों ने पूरा मानने की कीमत
लेकिन अधूरे लोगों की पूरी बात गलत थी
उसके मां बाप उसे पूरा करते करते
क़र्ज़ से खुद अधूरे हो गए थे

हाँ क़र्ज़ के बोझ से अधूरे मां बाप
पैसे से उसकी ख़ुशी खरीदना चाहते थे
दिखने वाले पुरे लोगों सा दर्ज़ा दिलाकर
उसने इंकार कर दिया पूरा बनने से

हाँ वह पैसों की वैसाखी से पूरा नहीं बनी
मुझे पता चला एक रोज़ उसी से
उसने एक अपने जैसे अधूरे को चुना
आज वह उसे पति कहती है गर्व से

हाँ उसका विरोध "पूरे लोगों की भीड़" से
शायद पैसों की वैसाखी से भी हार जाता
मगर मन का विद्रोह उसका जाग्रत
दो अधूरों को एक पूरा कर गया

हाँ, उसकी सोच पूरे लोगों के लिए
चुनौती है अधूरा जीवन जीने वालों को
लोग शरीर से विकलांग अच्छे हैं
"कादर" सोच से विकलांगों का क्या करें

केदार नाथ "कादर"

Wednesday, February 17, 2010

हम भी खुदा

     हम भी खुदा
हम पागल हैं या वो बहरे,
असर नहीं क्यूँ होता है ?
प्यार में पागल हर कोई
क्यूँ सौ सौ आँसू रोता है ?
          आँसू क्यूँ आते हैं सोचो ?
          सपने धोने की खातिर
          बिन सपनोंवाला भी सोचो
          क्या कोई इंसा होता है ?
 हर एक का सपना लड़ता है
 बेबात ही मेरे सपनों से
 सपनों को बचाने की खातिर
 ग़दर दिलों का होता है
          ग़दर गलत है अपनी खातिर
          हर कोई ये समझाता है
         लड़ी न जिसने जंग कोई भी
         वो ही जनरल कहलाता है
 हम पागल हैं, हम लडतें हैं
 हमने ही सपने पाले हैं
 "कादर" है मतवाला मजनू
 खुदा भी हम सा होता है
केदार नाथ "कादर"

Wednesday, January 20, 2010

Some Imp. Blogs on:- A Vast List of Subjects, intrests

देखते रहो All are on Blogspot.com
just click on Google Address Baar.
http://www/.___ .blogspot.com/ सभी में रहेगा,
केवल रिक्त स्थान में भरना है जो नीचे दिया है.
भारतचौपल---, देशकीमिट्टी -- ,
प्रतिभा/प्रबधन पर राजनैतिक दुष्प्रभाव की परिणति
बिकाऊ मीडिया के बीच Mission Media./ पर
__.BharatChaupal.__DeshKiMitti__
PratibhaPrabandhanParinatiDarpan__YugDarpan--
SarvaSamaachaarDarpan Current News for All.
etc./आदि भरें.  दोनों ओर(.)न भूलें Some 20 others are:-
AntarikshaDarpan___DharmSanskrutiDarpan__
GyaanVigyaanDarpan__JeevanShailyDarpan__
JeevanMelaaDarpan__KaaryaKshetraDarpan__
MahilaaGharParivaarDarpan-ParyaavaranDarpan_
ParyatanDharoharDarpan__RaashtraDarpan__
SamaajDarpan__ShikshaaDarpan_SatyaDarpan__
VishvaDarpan_YuvaaDarpan__ChetnaaDarpan__
FilmFashionClubFundaa__(these 2 are on
Fundaa of FFCGlamour and Social evils Drugs,
Smoking, Wine. All कुचक्र कुसंग विकृति बिगाड़ा)
Kaavyaanjalikaa__Rachnaakaarkaa__
(blog for Poety and other creative Activities)
ThitholeeDarpan_हास्य ठिठोली जीवनमें आवश्यक है
किन्तु जीवन ठिठोली नहीं है, न बना दी जाए!.इस पूरी
शृंखला में भारत की सभी प्रकार की पीड़ाकी अभिव्यक्ति
है आप इन सभी या इनमें से किसी भी पीड़ा को व्यक्त
करने हेतू कोई भी ब्लॉग चुन सकते हैं, लिख सकते हैं.
हमसे जुड़ने के इच्छुक ईमेल या चैट कर सकते
हैं (युगदर्पण h याहू / गूगल पर उपलब्ध है)
जीवन के हर रूप/ हर रंग/हर पक्ष के दर्द को समझने
के प्रयास में----अंतरताने पर____20 दर्पण +5
अन्तरिक्ष/चेतना/धर्मसंस्कृति/ज्ञानविज्ञान/जीवनशैली/
जीवनमेला/कार्यक्षेत्र/महिलाघरपरिवार/पर्यावरण/
पर्यटनधरोहर/प्रतिभाप्रबंधनपरिणति/राष्ट्र/समाज/शिक्षा/
सत्य/सर्वसमाचार/ठिठोली/विश्व/युवा एवं युगदर्पण +
भारतचौपल, देशकीमिट्टी, फ़िल्मफ़ैशनक्लबफ़ंडा/
काव्यांज्लिका, रचनाकारका,.ब्लॉगस्पाट.काम की
पूरी श्रंखला प्रस्तुत है.
--युगदर्पण समाचार पत्र समूह

तिलक राज रेलन सम्पादक- युग दर्पण
09911111611, 9911145678, 9540007993,-91