Monday, May 24, 2010

टेंडर

जिंदगी के टेंडर में क्या स्पेसिफिकेशन सही थी ?
क्या ड्यू डेट सही थी ?ओपनिंग वेन्यु सही था ?
यही सवाल कौंधते रहते हैं, हर रोज़ इधर उधर,
परचेज आर्डर शायद सही ड्राफ्ट नहीं हुआ होगा I
तभी तो सामान की सपुर्दगी डिमांड के अनुसार नहीं,
"औडिट" कराना पड़ेगा, इन्सपेकशन में कोई कमी है I
"सेल्फलाइफ" एक्सपायर माल की डिलीवरी हुई है,
माल एक्सेपटेबल नहीं है, रिजेक्शन कर वापिस भेजिएI
पूरा जीवन परचेज की टर्म्स से भरा पड़ा है,
जीवन फाइल नहीं है पर नेगोशियेशन है I
आपकी असेप्टेबिलिटी "प्राईस रिडक्शन" पर हो सकती है,
दूसरा माल कोच में लगाना जरुरी है,
रिस्क परचेज मजबूरी है I
पर इंसान माल नहीं है, सामान और स्टोर नहीं है,
डिलीवर्ड स्टोर में दोष तो "कादर" मेन्युफेक्चरर का है I
प्रार्थना है अगली बार टेंडर सही होगा ,
अगर नहीं हो तो मुझे ही सेंपल मान लिया जाये इ

केदारनाथ"कादर"
kedarrcftkj .blogspot .com

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Sunday, May 23, 2010

Kabhi Alvida Na Kehna OLD



"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

सपने

आँखों ने मन ने मिल के
कैसे ये सपने बुने हैं
आंसुओं से नहाये हैं मेरे
इसलिए तो इतने नए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं

नींद आती नहीं है हमको
जागते जागते सो रहे हैं
डर लगता है सपनो से हमको
जखम सपनो ने हमको दिए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं
डरते हैं कहीं मिल न जाएँ
बड़ी मुश्किल से भुलाया है उनको
नाम उनका पुकारा किसी ने
जबाब हमने कितने दिए हैं
..... कैसे ये सपने बुने हैं
आइना भी बड़ा खुदगरज है
कैसी करता है हमसे ठिठोली
सामने जब भी होते हैं उसके
अक्स उसके ही इसने दिए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं
मन मेरा मेरे वस् में नहीं है
ये मुझसे जुदा हो गया है
"कादर" किसी के सपनो में
नींद अपनी कोई खो गया है


केदारनाथ "कादर"








"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, May 17, 2010

भ्रष्टाचार

हम जितना सच से शरमाते जाते हैं
हम उतने ही सभ्य हुए से जाते हैं
नियमों और कानूनों में क्या रखा है?
झूठ से यारो माल कामये जाते हैं

जब भी पूछो वे हंसकर कहते हैं
पद सब कुछ है, नोटों का भी पेड़ यही
सोने चाँदी के ताजों से हैं सजे हुए
मित्वयी होने का जो पाठ पढाये जाते हैं

किस्मत रोज़ कहाँ लेती है अंगड़ाई
साधू भी कमसिन की बाँहों में पाए जाते हैं
जो करते निर्माण नियम कानूनों का
सदा तोड़ते उनको पाए जातें हैं

शब्दों की भी पीर उन्हें नहीं लगती है
गाँधी जी से कान खुजाये जाते हैं
कौन सुना करता है नीचे वाले की आवाज
नीचे वालों को तो सभी दवाये जाते हैं

महामारी है मन का काबू न रहना
संत लोग कब से बतलाये जाते हैं
व्यभिचार के भूत छिपे हर कोने में
भ्रष्टाचार का सिर सहलाये जाते हैं

दोषी तुम हो , दोषी हम हैं
चुप चुप सब सहते जाते हैं
कितने हैं हम सोच के अंधे
घाब कहीं, कहीं मरहम लगाये जाते हैं

ये स्मरण हमें रखना होगा
भ्रष्टाचार का दलन करना होगा
पूरा जीवन ही अध्यात्म है
हम फिर से दोहराए जाते हैं

यही पंथ है सर्वोन्नती का
स्वतंत्रता से चुनना होगा
"कादर" बात सभी लोगों को
कब से बताये जाते हैं

kedarnath"kadar"
also visit kedarrcftkj.blogspot.com



"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण
"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है ! इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, May 10, 2010

सोचता था उम्र भर, दीप बनकर जलूँ
बन ज्योति हाथ हाथों में लेकर चलूँ

मगर मुझको भी इस तिमिर ने छला
उजले घर , लेकिन सोच उज्वल कहाँ है

अब तो नज़रों का है धोखा भीड़ भी
भीड़ में भी शख्स अकेला ही खड़ा है

पास रहकर भी रहे हम दूर जैसे
संग सांसों के घुटन का सिलसिला है

काफिले कितने ही कायरों के है यहाँ
दोस्त भी पिछले मोड़ से मुड़ गया है

नींद नहीं ,तकिया कोहनी का लगाकर
डर लुटने का घर मन में कर गया है

सोचता हूँ कुछ धरोहर छोड़ने को लिखूं
"कादर" हर व्यथा जैसे मेरी ही कथा है

केदारनाथ "कादर"



"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

और नहीं अब और नहीं

और नहीं अब और नहीं
बूढी आँखों में सपनों की मौतें
गीत रुंधी आवाजों में
और नहीं अब और नहीं


बिंधे पंख से और उड़ानें
मजदूरों के तैश तराने
लहू की प्यासी तेज कटारें
और नहीं अब और नहीं

अंग भंग न करो देश के
न करो प्रेम का बंटवारा
भाई -भाई में रार नई
और नहीं अब और नहीं

जंगखोर कर रहे घोषणा
शांति का तुम कर दो नाद
लहू की धार धरती पर
और नहीं अब और नहीं


हर मन इक उपवन हो जाये
न हो नई कहीं बिभिषिका
दुनिया के नक़्शे पे दरारें
और नहीं अब और नहीं


मुक्त प्राण हो मुक्त हो सांसे
न मन पर कोई बंधन हो
अवांछित शासन की शर्तें
और नहीं अब और नहीं

स्वर सम्बेत सभी जन गाएं
विश्व में गड़बड़ और नहीं
प्रेम राज हो "कादर" कटुता
और नहीं अब और नहीं


केदारनाथ "कादर"


"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Thursday, May 6, 2010

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था
दिल लुटाने वाला भी हमसा कोई मासूम था

प्रेम का दरिया बनकर कोई उमड़ा क्या करें
दिल मेरा छोटा प्यार तेरा कहाँ समाएगा

देख आँखों में मेरी सागर तुझे मिल जायेगा
दर्द ही नहीं प्यार में करार भी मिल जायेगा

दर्द सिने का मेरे तुमको जब लगेगा अपना सा
तब इन लफ़्ज़ों का फासला भी फ़ना हो जायेगा

मगरूर न कहना हमें बन्दे खुदा के हम भी हैं
मुहब्बत में "कादर" दिलबर में खुदा मिल जायेगा

केदारनाथ "कादर"

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Tuesday, May 4, 2010

नेता

चुनाव से भाग्य बदलने की सोच
गरीब आदमी की बेबसी और मूर्खता है

चुनाव महज गुंडा चुनने की कवायद है
जो तय करता है गुंडे का कद और अधिकार
बेइज्जत नेता भी माननीय लगवाता है
नाम के सामने चुनाव जीतने के बाद

चुन कर आने पर उसे हक़ है
हमारी बहन बेटियों की इज्ज़त लूटने
गरीबों का हिस्सा छीनने का
सांड बनकर चढने का निर्वलाओं पर

ये आम आदमी को देते हैं
झूठी तसल्ली के लिए RTI का हक़
और इसकी ही आड़ में करते है
हमारी ही कंवारी इच्छाओं का शीलभंग

केदारनाथ "कादर"




"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

परेशानियाँ

जीवन है तो होंगो ही वो
कहते हैं जिनको परेशानियाँ
चलती रहती हैं साथ वो
बन के जीवन की परछाईयां

ये दोस्त हैं हमारी ही तो
मिलाती हैं एक दूजे से परेशानियाँ
उस खुदा को भी यद् करते तभी
जब वो देता है हमको परेशानियाँ

शुक्रिया शुक्रिया परेशानियों शुक्रिया
तुम्हारी मेहरवानियों ने पता उसका दिया
भूल ही बैठे थे खुद बनकर खुदा
तुमने सिखाया हम हैं क्या ? शुक्रिया

परेशानियाँ ही जोडती है हमें
ये करती हैं हम पर मेहरवानियाँ
याद आया खुदा पाकर तुम्हे
"कादर" परेशानियों को शुक्रिया शुक्रिया

केदारनाथ "कादर"

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Sunday, May 2, 2010

(कविता) -वसीयत

Share


लिख दी है वसीयत मेंने 
बेटे बेटी के नाम आज 
बढ़ा चढ़ा के क्या लिखूं 
अभी तलक का कमाया ही
साफ़ लिख दिया है करीने से
खुद ही सफेद पाठे पर नीली स्याही से
बँटवारा बराबरी का किया है मैंने
लड़ने की बात रखी ना बाकी
बड़े को ब्लॉगर,बेटी को ऑरकुट
पत्नी को फेसबुक थमा दी है
सोचता हूँ छुटके को ट्विटर देदूं,
पता सभी का एक रखा है
बदल बदल कर पासवर्ड  बाँट दिया
कर्जे में मकान किराया एक को
दूजे को बिजली की बाकियात मिली है
बेटी को अप्रकाशित उपन्यास हाथ लगा
और पत्नी को कवि सम्मेलनी कवितायें
छोटे पे मेरा दिल कुछ ज्यादा है
दूंगा उसे ही आदतें सारी मेरी अपनी
चाय की थड़ी पर गप्पेबाजी का आलम
जी-टॉक पर बातों का हूनर
और मिस कॉल मारने की मजबूरी
केवल दो उँगलियों से कि-बोर्ड चलाने की आदत 
भी उसी के हिस्से लिख दी है
सब कुछ तो लिख दिया है आज
रोजनामचे की तरह खरा-खरा
गाँव में पानी,बस और बिजली का इन्तजार
जानबुझ  कर दिया है शहर  में रहते बड़े बेटे को
सरकारी ऑफिसों की चक्करबाजी का गणित और
धड़ेबाजी वाला  समाजशास्त्र किसे दूं
समझ से परे लगता है इस पीढ़ी को
वसीयत  के ख़ास हिस्से को पढ़ने के लिए 
होता  नहीं कोई तैयार खुदा जाने
जहां लिखा है मेंने  बाप के मरणभोज में
बेचे पुस्तेनी मकान का हिसाब अब भी
और लिखा है कम उम्र में मां बनने से
मरी पहले वाली पत्नी की कहानी
सादे कागज़ की किनोरें गीली होने लगी है
वसीयत हाथ से ढ़ीली होने लगी है
दुःख  ज्यादा और सम्पति कम लिखी है मैंने
किराए का मकान और मालिक की धमकी
अभी लिखनी बाकी है वसीयत में मेरे
पत्नी को घर छोड़,महिला मित्रों से लम्बी बातें
लिखू कैसे डर लगता है थोड़ा सा
औरों की थाली में ज्यादा नज़र रखने 
वाली आँख़ें कौन नेत्र दान में लेगा मेरी
सोच रहा हूँ बैठा-बैठा
पड़ौसियों से किया अदाकारी का व्यवहार
और उधार के पैसों पर बेफिक्री की ज़िंदगी
इसी वसीयत का हिस्सा बना  है
तकिये के नीचे कुछ नहीं है अब 
तिजोरी की चाबी जैसा
ज़मीन में दबा नहीं रखा कुछ भी खोदने को
मेरे पास तो रही बाकी 
ज़िरो बैलेंस वाली संस्कृति
कोयले और चॉक से लिखे नामों सहित ऐतिहासिक इमारतें
लिख दिया  है आने वाली पीढ़ी के नाम 
प्लास्टिक की थैलियों से अटा पड़ा शहर का तालाब
नदी,नाला,सड़कें और 
समारोह में उड़ती फिरती प्लास्टिक की गिलासें 
नास्ते के भरोसे आयोजनों में मेरी भागीदारी 
और अखबारी खबर में मेरे  नाम
वाली कतरनें संभाल रखी है 
वसीयत में देने को
लेने को राजी नहीं कोई क्या करें
कुछ भी बाकी नहीं रखा है
माफ़ करना मेरे अपनों 
ज्य़ादा कमा नहीं पाया 
लिखने को वसीयत मेरी
वसीयत पूरी होती है 
 
रचना:माणिक