Thursday, December 2, 2010

खुदीराम बोस

खुदीराम बोस भारत को कुचल रहे ब्रिटिश पर जो पहला बम था, इस राष्ट्र नायक ने फैंका था,स्कूल में भी वह वन्दे मातरम जैसे पवित्र शब्दों की ओर आकर्षित था ! '(मैं भारत माता के चरणों में शीश नवाता हूँ !) और आजादी के युद्ध में कूद पड़े. 16 वर्ष का लड़का पुलिस अवज्ञा कर 19 वर्ष की आयु में जब वह बलिदान हुआ उसके हाथों में एक पवित्र पुस्तक भागवद गीता (देवी गीत) के साथ उसके होठों पर था वंदे मातरम का नारा.--लेखक ! यह अवसर था, फरवरी 1906 में एक भव्य प्रदर्शनी की बंगाल में मेदिनीपुर में व्यवस्था की गयी थी. उद्देश्य तो भारत के ब्रिटिश शासक के भारत में अन्याय को छिपाने का था. प्रदर्शनी पर कठपुतलिया और चित्र थे, जो धारणा बना सकते है कि विदेशी ब्रिटिश शासक भारत के लोगों की सहायता कर रहे थे! प्रदर्शनी देखने के लिए वहाँ बड़ी भीड़ थी ! तब, विज्ञप्ति शीर्षक 'सोनार बांग्ला' के साथ वंदे 'मातरम् नारा लिए पत्रक के एक बंडल के साथ 16 वर्ष का एक लड़का दिखाई दिया, वह पत्रक उन लोगों को वितरण किया गया. इसके अतिरिक्त यह प्रदर्शनी लगाने में अंग्रेजों का असली उद्देश्य यह भी पत्रक में बताया गया. तथा ब्रिटिश अन्याय और अत्याचार के विभिन्न रूपों का खुलासा भी !प्रदर्शनी के लिए आगंतुकों के अतिरिक्त, वहाँ कुछ एक इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादार भी थे. उन लोगों ने अंग्रेजों के अन्याय उजागर करने का विरोध किया ! वंदे मातरम् जैसे शब्द '(स्वतंत्रता) और' स्वराज्य '(आत्म शासन) उन्हें पिन और सुई की तरह चुभते थे. वे पत्रक वितरण से लड़के को रोकने का प्रयास किया. उनकी आँखें गुस्से से लाल, वे लड़के पर गुर्राए glared, उसे डांटा और उसे धमकाते किया बवाल. लेकिन उन्हें अनदेखा कर लड़का शांति से पत्रक वितरण करता चला गया. जब कुछ लोगों ने उस पर कब्जा करने का प्रयास किया, वह चालाकी से भाग निकले. अंतत: एक पुलिसकर्मी के हाथ की पकड़ लड़के पर पद गई वह पत्रक का बंडल भी खींच लिया. लेकिन पकड़ने के लिए लड़का इतना आसान नहीं था. वह अपने हाथ झटकाता मुक्त हुआ. फिर वह हाथ लहराया और पुलिस वाले की नाक पर शक्तिशाली वार किया. फिर वह पत्रक भी अधिकार में ले लिया, और कहा, "ध्यान रखो, कि मेरे शरीर को स्पर्श नहीं! मैं देखता हूँ  आप मुझे कैसे एक वारंट के बिना गिरफ्तार कर सकते हैं!."वो झटका प्राप्त पुलिस वाला फिर आगे बढ़ा, लेकिन लड़का वहाँ नहीं था. वह भीड़ के बीच गायब हो गया था.चाय पान के समय, लोगों के रूप में वंदे 'मातरम् तूफान से पुलिस और राजा के प्रति वफादार भी अपमानित और आश्चर्य से भरे दुखी थे.बाद में एक मामला लड़के के विरुद्ध दर्ज किया गया था, लेकिन अदालत ने उसे लड़के कि कम आयु के आधार पर निर्धारित किया है.जो वीर लड़का इतना बहादुरी से मेदिनीपुर प्रदर्शनी में पत्रक वितरित कर गया और जिससे अंग्रेजों की कुत्सित चालों को हराया खुदीराम बोस था.खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को मेदिनीपुर जिले के गांव बहुवैनी में हुआ था. उनके पिता त्रैलोक्य नाथ बसु नादाज़ोल राजकुमार के शहर के तहसीलदार थे. उसकी माँ लक्ष्मी प्रिया देवी जो अपने धार्मिक जीवन और उदारता के लिए एक पवित्र औरत अधिक जानी जाती थी. हालांकि घर में कुछ बच्चों पैदा हुए थे सब की जन्म के बाद शीघ्र ही मृत्यु हो गई. केवल एक बेटी बच गई. अंतिम बच्चा, खुदीराम बोस, एकमात्र जीवित बेटा था.
बोस परिवार को एक नर बच्चे की चाह थी. लेकिन लंबे समय के लिए उनके आनंद की आयु पर्याप्त नहीं रह सकी. वे अप्रत्याशित रूप से मर गया जब खुदीराम मात्र 6 वर्ष था. उसकी बड़ी बहन अनुरुपा देवी और जीजाजी अमृतलाल ने उसे पालने की जिम्मेदारी कंधे पर ली थी. अनुरुपा देवी ने एक माँ के स्नेह के साथ खुदीराम का पालन कियावह चाहती थी, उसका छोटा भाई अत्यधिक शिक्षित, एक उच्च पद पाने के बाद नाम हो! वह इसलिए उसे पास के एक स्कूल में भर्ती कराया.  ऐसा नहीं था कि खुदीराम नहीं सीख सकता थावह कुशाग्र था और चीजों को आसानी से समझ सकता थालेकिन उसका ध्यान अपनी कक्षा में पाठ के लिए नहीं लगाया जा सका. हालांकि उनके शिक्षकों ने अपनी आवाज के शीर्ष पर चिल्लाया, वह सबक नहीं सुना. सबक से पूरी तरह से असंबंधित विचार उसके सिर में घूमते रहे थे जन्म से एक देशभक्त, खुदीराम बोस ने 7-8 वर्ष की आयु में भी सोचा, ' भारत हमारा देश है. यह एक महान देश है. हमारे बुजुर्गों का कहना है कि यह सहस्त्रों वर्षों से ज्ञान का केंद्र है. तो क्रोधित ब्रिटिश यहाँ क्यों हो ? उनके अधीन, हमारे लोग भी जिस रूप में वे चाहते नहीं रह सकते. बड़ा होकर, मैं किसी तरह उन्हें देश से बाहर खदेड़ दूंगा 'पूरे दिन लड़का इन विचारों में लगा था. इस प्रकार जब वह पढ़ने के लिए एक किताब खोले, उसे एक क्रोधित ब्रिटिश की हरी आंखों का सामना करना पड़ा. यहां तक कि जब वह खा रहा था, वही याद उसका पीछा करती रही और स्मृति उसके दिल में एक अजीब सा दर्द लाई. उसकी बहन और उसके जीजा दोनों ने सोचा लड़का परेशान क्यों है ? उन्होंने सोचा कि उसकी माँ की स्मृति उसे परेशान किया है, और उसे अधिक से अधिक स्नेह दिया. किन्तु खुदीराम भारत माता के बारे में दुखी था. उसकी पीड़ा में दिन पर दिन वृद्धि हुई. 
गुलामी से बदतर रोग न कोय ?एक बार खुदीराम एक मंदिर में गया था. कुछ व्यक्ति मंदिर के सामने बिना आसन जमीन पर लेट रहे थे. "क्यों लोग बिना आसन जमीन पर लेट रहे हैं", खुदीराम ने कुछ व्यक्तियों से पूछा, उनमें से एक ने विस्तार से बताया: "वे किसी न किसी बीमारी से पीड़ित हैं व एक मन्नत मानी है और भोजन और पानी के बिना यहाँ पड़ रहेंगे जब तक भगवान उनके सपने में दिखकर रोग ठीक करने का वादा नहीं देता ..."खुदीराम एक पल के लिए सोचा और कहा, "एक दिन मुझे भी तप करने के लिए भूख और प्यास भुला कर और इन लोगों की तरह जमीन पर बिना आसन लेटना होगा.""आपको क्या रोग है?" एक आदमी ने लड़के से पूछा! खुदीराम हँसे, और कहा, "गुलामी से बदतर रोग न कोय ? हमें इसे बाहर खदेढ़ना होगा ."कितनी  कम उम्र में भी, खुदीराम ने इतनी गहराई से देश की स्वतंत्रता के बारे में सोचा था. लेकिन वह इसे कैसे प्राप्त करे ? यह समस्या हमेशा उस के मन को घेरे रखती थी . वह सफलतापूर्वक कैसे अपने कर्तव्य पूरा कर सकता है? इस प्रकार चिंतित खुदीराम से एक दिन का नाद सुना 'वंदे मातरम', 'भारत माता की जय' (विजय मदर इंडिया के लिए). वह इन शब्दों से रोमांचित था, उसकी आँखें चमकने लगी और वह आनंद का अनुभव किया.
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है ! इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Sunday, October 17, 2010

मानवता हितार्थ के निहितार्थ?

मानवता हितार्थ के निहितार्थ?
वामपंथियों ने स्वांग रचाया, पहन मुखौटा मानवता का;
ये ही तो देश को बाँट रहे हैं, पहन मुखौटा मानवता का !!
मैं अच्छा हूँ बुरा विरोधी, कहने को तो सब ही कहते हैं;
नकली चेहरों के पीछे किन्तु, जो असली चेहरे रहते हैं;
आओ अन्दर झांक के देखें,और सच की पहचान करें;
कौन है मानवतावादी और, शत्रु कौन, इसकी जाँच करें!
मानवतावादी बनकर जो हमको, प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं;
चर- अचर, प्रकृति व पाषाण, यहाँ सारे ही पूजे जाते हैं;
है केवल हिन्दू ही जो मानता, विश्व को एक परिवार सा;
किसके कण कण में प्रेम बसा, यह विश्व है सारा जानता!
यही प्रेम जो हमारी शक्ति है कभी दुर्बलता न बन जाये;
अहिंसक होने का अर्थ कहीं, कायरता ही न बन जाये ?
इसीलिए जब भी शक्ति की, हम पूजा करने लग जाते हैं;
तब कुछ मूरख व शत्रु हमारे, दोनों थर्राने लग जाते हैं!
शत्रु भय से व मूरख भ्रम से, चिल्लाते जो देख आइना;
मानवता के रक्षक को ही वो, मानवता का शत्रु बतलाते;
नहीं शत्रु हम किसी देश के, किसी धर्म औ मानवता के;
चाहते इस सोच की रक्षा हेतु, हिंदुत्व को रखें बचाके !
अमेरिका में यदि अमरीकी ही अस्तित्व पे संकट आए;
52 मुस्लिम देशों में ही जब, इस्लाम को कुचला जाये;
तब जो हो सकता है दुनिया में, वो भारत में हो जाये;
जब हिन्दू के अस्तित्व पर भारत में ही संकट छाये!
जब हिन्दू के अस्तित्व पर भारत में ही संकट छाये!!"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है ! इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Saturday, September 11, 2010

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु  मैकाले व वामपंथियों से प्रभावित कुशिक्षा से पीड़ित समाज का एक वर्ग, जिसे देश की श्रेष्ठ संस्कृति, आदर्श, मान्यताएं, परम्पराएँ, संस्कारों का ज्ञान नहीं है अथवा स्वीकारने की नहीं नकारने की शिक्षा में पाले होने से असहजता का अनुभव होता है! उनकी हर बात आत्मग्लानी की ही होती है! स्वगौरव की बात को काटना उनकी प्रवृति बन चुकी है! उनका विकास स्वार्थ परक भौतिक विकास है, समाज शक्ति का उसमें कोई स्थान नहीं है! देश की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्परा व स्वगौरव की बात उन्हें समझ नहीं आती! 
 किसी सुन्दर चित्र पर कोई गन्दगी या कीचड़ के छींटे पड़ जाएँ तो उस चित्र का क्या दोष? हमारी सभ्यता  "विश्व के मानव ही नहीं चर अचर से,प्रकृति व सृष्टि के कण कण से प्यार " सिखाती है..असभ्यता के प्रदुषण से प्रदूषित हो गई है, शोधित होने के बाद फिर चमकेगी, किन्तु हमारे दुष्ट स्वार्थी नेता उसे और प्रदूषित करने में लगे हैं, देश को बेचा जा रहा है, घोर संकट की घडी है, आत्मग्लानी का भाव हमे इस संकट से उबरने नहीं देगा. मैकाले व वामपंथियों ने इस देश को आत्मग्लानी ही दी है, हम उसका अनुसरण नहीं निराकरण करें, देश सुधार की पहली शर्त यही है, देश भक्ति भी यही है !
भारत जब विश्वगुरु की शक्ति जागृत करेगा, विश्व का कल्याण हो जायेगा !

 "अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !
 इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Sunday, September 5, 2010

राष्ट्र मंडल खेल आयोजन और दिल्ली

राष्ट्र मंडल खेल आयोजन और दिल्ली     -तिलक राज रेलन आजाद 
जानकारी मिली दिल्ली सरकार से,
कभी पढ़ा था हमने किसी अख़बार से, 
राष्ट्र मंडल खेलों का आयोजन होगा,
दिल्ली पर 55 हज़ार करोड़ का व्यय होगा!

दिन महीने वर्ष बीत गए उस शुभ घडी की प्रतीक्षा में,
पता नहीं कौन से पाठ पढ़े थे नेताओं ने अपनी शिक्षा में,
दिल्ली का रंग रूप तो इस आयोजन की तैयारी में भी
बदल नहीं पाया, चुक गयी सारी निधी जाने किस भिक्षा में

इतनी राशी मुझे जो मिल जाती
बिजली- पानी, सड़क भी खिल जाती
दिल्ली यूँ भाग्य पर नहीं रोती
इसके ठहाकों से दुनिया हिल जाती

सारा ढांचा बदल के रख देता 
दिल्ली दुल्हन बना के रख देता
देखते जिस ग़ली, सड़क की तरफ 
नज़ारों पर नज़र फिसल जाती  

ऐसा होना तो तब ही संभव था 
बईमानी होना जहाँ असंभव था 
नेता हो और बईमानी भी न करे?
ऐसा होना ही तो असंभव था!

कैसा वो करार था और कैसा वो समय होगा
देश के यश का वास्ता दिया मगर अपयश होगा 
मदमस्त बेखबर से बैठे है सब क्यों 'तिलक'
यश हो अपयश किसी पे इसका असर कहाँ होगा?

सौभाग्य ऐसा नहीं है दिल्ली का 
छींका*लिखा पड़ा है बिल्ली का 
(छींका -मलाई की हंडिया)
छींका लिखा पड़ा है बिल्ली का
छींका लिखा.....

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है ! इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, July 12, 2010

तुम

मेरे दिल में क्या है जो तुम देख पाते
खुदा की कसम तुम न यूँ रूठ पाते

तुम जो गए हो तो दिल है ये सूना
क्यूँ इतनी थी जल्दी कुछ तो बताते

है बेचैन दिल ये , नहीं चैन इसको
करें क्या हम कुछ समझ ही न पाते

तनहाइयों के रंग बड़े ही अज़ब हैं
जुदाई सहें कैसे हमें तू ही बता दे

अब छा गया है मेरे हर सू अँधेरा
खुशियों को तुम बिन कैसे सदा दें

तुम ही हो साज इस जीवन के मेरे
"कादर" कैसे सजें सुर तू ही बता दे

केदारनाथ"कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Wednesday, June 30, 2010

टोपी धारी किन्नर

तुम प्रजातंत्र का नाम लेकर
पीटते रहो ढोल वाह वाही के
और वो तुम्हारे देश में ही
पले कुत्ते , देखें तुम्हे घूरकर
झाग उगलते चीखते चिल्लाते
कहते रहो- देश को माँ भारती
वो तुम्हारा राष्ट्रीयगान नहीं गायेंगे
पोंछेंगे तुम्हारे झंडे से अपने जूते
तुम अहिंसा का राग अलापते हो
अहिंसा कायरो को शोभा नहीं देती
तुम्हे कश्मीर में सरकार चाहिए अपनी
इसलिए बेच दी है भावनाएं देश की
तुम समझौता चाहते हो देशद्रोहियों से
कर साल अरबों रुपये लुटाते हो उनपर
वो तुमपर थूकते हैं, भागते हैं पाकिस्तान
सीखने नए पैंतरे तुम्हे काटने के लिए
तुम्हारे अपने देश के कश्मीरी बच्चे
बिकते हैं सिर्फ दो दो सौ रपये में
मारने को पत्थर तुम्हारे जवानों पर
बैठे रहो सीमाओं पर करते रहो रक्षा
बाहर को देखते हुए अपने दुश्मन
और वो साले लड़ाते रहें तुम्हें
धर्म और इस्लाम के नाम पर
वो इस्लाम का "इ" नहीं जानते
मगर जानते हैं तुम्हारी कमजोरी
जीतकर हारने की तुम्हारी आदत
देखते रहो सपना पूरे कश्मीर का
बिना कुर्वानी कुछ नहीं मिलता
शिखंडी सरकार के नुमाइन्दे सिर्फ
भौंकना जानते हैं, सिपाहियों से घिरे
कभी कुछ बोल भी दिया जोश में
आलाकमान बुलाकर धमका देती है
अरे कुर्सी से चिपके हुए पिस्सुओ
तुम से कुछ नहीं होता तो छोड़ दो
आगे आने दो हिजड़ों को भी
शायद वो ही बचा सकें देश की इज्ज़त
क्योंकि उनके मरने पर कोई नहीं रोता
अपने क्रिया कलापों से तुम ही हो
इस संसद के टोपी धारी किन्नर

केदारनाथ" कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Wednesday, June 23, 2010

माया

खेल अनोखा पागल मन का , बिलकुल समझ न आये
पानी, पानी बिच रहे बुलबुला , काहे ये अलग कहाए

जीवन है क्षणभंगुर ऐसा , पानी के बुलबुले के जैसा
कुछ भी अलग नहीं दोनों में, बात समझ नहीं आये

मूल में आकर मिलना है, भेदन करके रूप नए का
द्वैत मिटाना है अंतर से , यही जीवन लीला कहलाये

मूल से मिल मूल जान ले, अलग नहीं तू सत्य मान ले
अलग अलग का भान ही तेरा, "कादर" माया कहलाये

केदारनाथ" कादर"kedarrcfdelhi.blogspot .com


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Monday, June 21, 2010

सदा ए वक़्त

जब तलक फिर से लहू बहाया न जायेगा
मुल्क बरबादियों से बचाया न जायेगा

किससे करें शिकायत, शिकवा, सब हैं चुप
बिन शोर नाखुदाओं को जगाया न जायेगा

माना हैं बिगड़े मुल्क के मेरे हालात दोस्तों
क्या एक नया इन्कलाब लाया न जायेगा

खुदगर्ज़ रहबरों की है बारात मुल्क में
क्या फ़र्ज़ का सलीका सिखाया न जायेगा

जब तक सुकून से नहीं मुल्क का हर शख्स
सोने का फ़र्ज़ "कादर" निभाया न जायेगा

केदारनाथ" कादर"
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Sunday, June 20, 2010

बदल नहीं सकती

माना हमने दर्द की शाम ये ढल नहीं सकती
जलाकर दिल क्या किस्मत बदल नहीं सकती

वो जो कहते थे अक्सर "बेवफा" मुझको
उनकी क्या आदत ये बदल नहीं सकती

ये बात और है लिखा है किस्मत में डूबना
कोशिशों से क्या इबारत ये बदल नहीं सकती

माना मुश्किल है ठहरना मेरी मौत का यारो
उनके आगोश में क्या मौत ढल नहीं सकती

हमने चाहा है जिसे अपनी रूह की मानिंद
बेवफा "कादर" चुरा नज़रें निकल नहीं सकती


केदारनाथ "कादर"
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Tuesday, June 15, 2010

ज़िक्र न करना


उसने कहा है देके कसम, मेरा ज़िक्र न करना
आ जाये गम गले तक भी, मेरा ज़िक्र न करना

माना अकेले होंगे तुम, हर मोड़ पर -ऐ- दोस्त
रूह जब्त न कर पाएगी सितम, मेरा ज़िक्र न करना

आँखों में उमड़ते रहें चाहे तेरी, अश्कों के समंदर
तुम डूबती कश्तियों से भी, मेरा ज़िक्र न करना

दुश्मन से न कहना बर्बादे मुहब्बत का ये किस्सा
खामोश निग़ाह दोस्तों से भी, मेरा ज़िक्र न करना

न सोचना की अंधेरों में, अकेले हैं हम कहीं
तेरा रोशन चिरागे याद है, मेरा ज़िक्र न करना

हम खुद ही हुए जाते हैं दफ़न अपने सीने में
"कादर" हों सामने भी अगर, मेरा जिक्र न करना


केदारनाथ"कादर"
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Wednesday, June 9, 2010

मरा हुआ प्रजातंत्र

तुम्हारा प्रजातंत्र - सिर्फ एक
बुचडखाने की तरह है
जिसके अन्दर हर एक नेता
सफ़ेद कपडे पहने कसाई है
जो जिबह कर देना चाहता है
तुम्हारी हर ख़ुशी- सिर्फ
अपनी ख़ुशी और कुर्सी के लिए
वो निकाल लेना चाहता है -चूसकर
तुम्हारी हड्डियों की मज्जा -ताकि
चिपका रहे कुर्सी से -उल्लू
अपनी मौत तक -तुम्हारी बद्दुआओं से

बहुत खुश होते हो
सबसा बड़ा प्रजातंत्र कहलवाकर
कौन सा तंत्र तुम्हारा काम करता है
न व्यवस्था ,न न्याय और न खुफिया
हर जगह मच्छर से देश
तुम्हारे शरीर पर काटतें हैं
तुम सिर्फ खुजाकर रह जाते हो

तुम्हारे देश के हिजड़े न्यायतंत्र की ताकत
पच्चीस वर्ष बाद २५ हजार मौतों का न्याय
एक देश तुम्हे भूलने को कहता है
तुम्हारी २५ हजार मौतें अतीत मानकर
और तुम भी तैयार हो,कोई सौदा हो जाये
तुम्हारे नेता खा लें -घूस मोटी सी
बनने के लिए मुखिया हिजड़ों की पार्टी का

तुम कानून हाथ में मत लेना
भोपाल में तुम्हारा कोई थोड़े ही मरा था
वो तो भोपाल वाले सोचेंगे
मंच बनायेंगे , प्रजातंत्र हिला देंगे-चीखेंगे
सरकार गिरा देंगे- बार बार चिल्लायेंगे
साले वो भी विपक्ष के कहने पर

तुम ने गिरवी रख दिया है- साहस
बेच दी है-आवाज, पहनी हैं -चूड़ियाँ
तुम अपने देशवासियों के लिए
आवाज नहीं उठा सकते
तुम नपुंसक - प्रजातंत्र का राग अलापते रहो
वो तुम्हारी बहन बेटे बेटियां मारकर
कहते रहेंगे- भूल जाओ पुरानी बातें

नया समझौता जरुरी है- दलाली के लिए
ताकि प्रजातंत्र के पिस्सुयों की औलादें
जिन्दा रह सके, पाप की कमाई की दलाली पर
ऊँचे महलों में, मर्सिडीज गाड़ियों में
हमारी तुम्हारी माँ बेटियों को
कुचलने नोचने के लिए सदा की तरह

मगर तुम मत सोचना , मत जागना
ये प्रजातंत्र है हर काम- नेता करेगा
इसीलिए तो अब इन्सान पैदा नहीं होते
पैदा होते हैं नेता , गली में , नुक्कड़ पर
अभाव की कोख से जन्मे -नाजायज, भूखे
नाख़ून दिखाते , झाग उगलते, बाल नोंचते
तुम्हारा प्रजातंत्र बचाने के लिए
जो बस देख रहे हैं अर्थव्यवस्था की ऊंचाई
जैसे एक बालक- खेत की मेढ़ पर
अपना शिशन पकडे देखता है मूत की धार
जो निचे आते आते रेत हो चुका होता है

केदारनाथ"कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Tuesday, June 1, 2010

नेता जी के नाम

दोस्तों मेरी ये कविता उन नेताओं को समर्पित है जो शायद ही इसे समझ सकें, क्योंकि अगर वो समझ सकते तो ऐसी कविता मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं होती. आज केवल कुर्सी का खेल चल रहा है. सब एक दूसरे के चुतड पोंछ रहें हैं उन्ही गंदे सने हाथों से ताकि कोई भी ये न कह सके की हम साफ हैं. आज नेतागिरी के नाम पर बेगुनाह लोगों को जलाया जा रहा है. रोटी का इंतजाम करने के बजाय गोलियां बरसाई जा रही हैं. पीने के पानी की मांग करो तो वाटर केनन की मार मिलती है. जिस देश में "दूध बेचा पूत बेचा"
कहा जाता था वहां पर बोतल बंद पानी पंद्रह रुपये में मिलता है. आजादी के साठ साल बाद भी हर चौराहे पर भिखारी दिखाई देतें हैं. हर रोज़ अख़बारों में गंद भरा हुआ परोसा जाता है. समाज को राह दिखाने वाले अख़बार कॉल गर्ल्स के मसाज पार्लर के नंबर छापते हैं , देश को गर्त में धकेलने के लिए, न की उन लोगों का पता पुलिस को देते हैं , वृद्ध केसरी क्लब चला कर , बाप और दादा की हत्या को शहीदी का नाम देकर चंडी चमका रहे हैं. अगर उनके बाप या दादा ने अच्छा कम किया तो इसके लिए उन्हें धन्यवाद, लेकिन कभी ये भी सोचो किस मकसद से ये अख़बार चलाये थे उन्होंने. बाप बेटी साथ बैठकर अख़बार नहीं पढ़ सकते. कहने को हर एक मंत्रालय है, मंत्री हैं नेता हैं पर सब...साल...ए. ... अकल से पैदल सत्ता कामनी की गोद में अपने को स्खलित कर रहे हैं ताकि और भी खूंखार जानवर पैदा हों उनके दूषित रक्त से . कोई नेता तो पढ़ेगा नहीं . शायद कोई चमचा या दिल जला ही कभी उन्हें उनके कर्मों के दर्शन करा दे.


नफरतों से प्यार की, हर हद मिटा दी आपने
दिल में जो रोशन शमा थी वो बुझा दी आपने

जान की बाजी लगा दी आपकी हर बात पे
किस तरह ये जां बचे, कैसी सजा दी आपने

आपकी आमद से दिल का सुकून जाता रहा
जाने किन शैतानों को सदा दी आपने

जख्मे दिल खिल उठे, आपके इस प्यार से
जिंदगी की शक्ल में,क्या मौत दी है आपने

हर उजाला जिंदगी से दूरतर होने लगा
ऐसी बदअमनी हुज़ूर फैला दी है आपने

हम खुदा के बंदा-ए-नाचीज हैं और कुछ नहीं
"कादर" खुदकशी कर ले वो हालत बना दी आपने.

केदारनाथ "कादर"
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Monday, May 24, 2010

टेंडर

जिंदगी के टेंडर में क्या स्पेसिफिकेशन सही थी ?
क्या ड्यू डेट सही थी ?ओपनिंग वेन्यु सही था ?
यही सवाल कौंधते रहते हैं, हर रोज़ इधर उधर,
परचेज आर्डर शायद सही ड्राफ्ट नहीं हुआ होगा I
तभी तो सामान की सपुर्दगी डिमांड के अनुसार नहीं,
"औडिट" कराना पड़ेगा, इन्सपेकशन में कोई कमी है I
"सेल्फलाइफ" एक्सपायर माल की डिलीवरी हुई है,
माल एक्सेपटेबल नहीं है, रिजेक्शन कर वापिस भेजिएI
पूरा जीवन परचेज की टर्म्स से भरा पड़ा है,
जीवन फाइल नहीं है पर नेगोशियेशन है I
आपकी असेप्टेबिलिटी "प्राईस रिडक्शन" पर हो सकती है,
दूसरा माल कोच में लगाना जरुरी है,
रिस्क परचेज मजबूरी है I
पर इंसान माल नहीं है, सामान और स्टोर नहीं है,
डिलीवर्ड स्टोर में दोष तो "कादर" मेन्युफेक्चरर का है I
प्रार्थना है अगली बार टेंडर सही होगा ,
अगर नहीं हो तो मुझे ही सेंपल मान लिया जाये इ

केदारनाथ"कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Sunday, May 23, 2010

Kabhi Alvida Na Kehna OLD



"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

सपने

आँखों ने मन ने मिल के
कैसे ये सपने बुने हैं
आंसुओं से नहाये हैं मेरे
इसलिए तो इतने नए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं

नींद आती नहीं है हमको
जागते जागते सो रहे हैं
डर लगता है सपनो से हमको
जखम सपनो ने हमको दिए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं
डरते हैं कहीं मिल न जाएँ
बड़ी मुश्किल से भुलाया है उनको
नाम उनका पुकारा किसी ने
जबाब हमने कितने दिए हैं
..... कैसे ये सपने बुने हैं
आइना भी बड़ा खुदगरज है
कैसी करता है हमसे ठिठोली
सामने जब भी होते हैं उसके
अक्स उसके ही इसने दिए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं
मन मेरा मेरे वस् में नहीं है
ये मुझसे जुदा हो गया है
"कादर" किसी के सपनो में
नींद अपनी कोई खो गया है


केदारनाथ "कादर"








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Monday, May 17, 2010

भ्रष्टाचार

हम जितना सच से शरमाते जाते हैं
हम उतने ही सभ्य हुए से जाते हैं
नियमों और कानूनों में क्या रखा है?
झूठ से यारो माल कामये जाते हैं

जब भी पूछो वे हंसकर कहते हैं
पद सब कुछ है, नोटों का भी पेड़ यही
सोने चाँदी के ताजों से हैं सजे हुए
मित्वयी होने का जो पाठ पढाये जाते हैं

किस्मत रोज़ कहाँ लेती है अंगड़ाई
साधू भी कमसिन की बाँहों में पाए जाते हैं
जो करते निर्माण नियम कानूनों का
सदा तोड़ते उनको पाए जातें हैं

शब्दों की भी पीर उन्हें नहीं लगती है
गाँधी जी से कान खुजाये जाते हैं
कौन सुना करता है नीचे वाले की आवाज
नीचे वालों को तो सभी दवाये जाते हैं

महामारी है मन का काबू न रहना
संत लोग कब से बतलाये जाते हैं
व्यभिचार के भूत छिपे हर कोने में
भ्रष्टाचार का सिर सहलाये जाते हैं

दोषी तुम हो , दोषी हम हैं
चुप चुप सब सहते जाते हैं
कितने हैं हम सोच के अंधे
घाब कहीं, कहीं मरहम लगाये जाते हैं

ये स्मरण हमें रखना होगा
भ्रष्टाचार का दलन करना होगा
पूरा जीवन ही अध्यात्म है
हम फिर से दोहराए जाते हैं

यही पंथ है सर्वोन्नती का
स्वतंत्रता से चुनना होगा
"कादर" बात सभी लोगों को
कब से बताये जाते हैं

kedarnath"kadar"
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Monday, May 10, 2010

सोचता था उम्र भर, दीप बनकर जलूँ
बन ज्योति हाथ हाथों में लेकर चलूँ

मगर मुझको भी इस तिमिर ने छला
उजले घर , लेकिन सोच उज्वल कहाँ है

अब तो नज़रों का है धोखा भीड़ भी
भीड़ में भी शख्स अकेला ही खड़ा है

पास रहकर भी रहे हम दूर जैसे
संग सांसों के घुटन का सिलसिला है

काफिले कितने ही कायरों के है यहाँ
दोस्त भी पिछले मोड़ से मुड़ गया है

नींद नहीं ,तकिया कोहनी का लगाकर
डर लुटने का घर मन में कर गया है

सोचता हूँ कुछ धरोहर छोड़ने को लिखूं
"कादर" हर व्यथा जैसे मेरी ही कथा है

केदारनाथ "कादर"



"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

और नहीं अब और नहीं

और नहीं अब और नहीं
बूढी आँखों में सपनों की मौतें
गीत रुंधी आवाजों में
और नहीं अब और नहीं


बिंधे पंख से और उड़ानें
मजदूरों के तैश तराने
लहू की प्यासी तेज कटारें
और नहीं अब और नहीं

अंग भंग न करो देश के
न करो प्रेम का बंटवारा
भाई -भाई में रार नई
और नहीं अब और नहीं

जंगखोर कर रहे घोषणा
शांति का तुम कर दो नाद
लहू की धार धरती पर
और नहीं अब और नहीं


हर मन इक उपवन हो जाये
न हो नई कहीं बिभिषिका
दुनिया के नक़्शे पे दरारें
और नहीं अब और नहीं


मुक्त प्राण हो मुक्त हो सांसे
न मन पर कोई बंधन हो
अवांछित शासन की शर्तें
और नहीं अब और नहीं

स्वर सम्बेत सभी जन गाएं
विश्व में गड़बड़ और नहीं
प्रेम राज हो "कादर" कटुता
और नहीं अब और नहीं


केदारनाथ "कादर"


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Thursday, May 6, 2010

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था
दिल लुटाने वाला भी हमसा कोई मासूम था

प्रेम का दरिया बनकर कोई उमड़ा क्या करें
दिल मेरा छोटा प्यार तेरा कहाँ समाएगा

देख आँखों में मेरी सागर तुझे मिल जायेगा
दर्द ही नहीं प्यार में करार भी मिल जायेगा

दर्द सिने का मेरे तुमको जब लगेगा अपना सा
तब इन लफ़्ज़ों का फासला भी फ़ना हो जायेगा

मगरूर न कहना हमें बन्दे खुदा के हम भी हैं
मुहब्बत में "कादर" दिलबर में खुदा मिल जायेगा

केदारनाथ "कादर"

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Tuesday, May 4, 2010

नेता

चुनाव से भाग्य बदलने की सोच
गरीब आदमी की बेबसी और मूर्खता है

चुनाव महज गुंडा चुनने की कवायद है
जो तय करता है गुंडे का कद और अधिकार
बेइज्जत नेता भी माननीय लगवाता है
नाम के सामने चुनाव जीतने के बाद

चुन कर आने पर उसे हक़ है
हमारी बहन बेटियों की इज्ज़त लूटने
गरीबों का हिस्सा छीनने का
सांड बनकर चढने का निर्वलाओं पर

ये आम आदमी को देते हैं
झूठी तसल्ली के लिए RTI का हक़
और इसकी ही आड़ में करते है
हमारी ही कंवारी इच्छाओं का शीलभंग

केदारनाथ "कादर"




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परेशानियाँ

जीवन है तो होंगो ही वो
कहते हैं जिनको परेशानियाँ
चलती रहती हैं साथ वो
बन के जीवन की परछाईयां

ये दोस्त हैं हमारी ही तो
मिलाती हैं एक दूजे से परेशानियाँ
उस खुदा को भी यद् करते तभी
जब वो देता है हमको परेशानियाँ

शुक्रिया शुक्रिया परेशानियों शुक्रिया
तुम्हारी मेहरवानियों ने पता उसका दिया
भूल ही बैठे थे खुद बनकर खुदा
तुमने सिखाया हम हैं क्या ? शुक्रिया

परेशानियाँ ही जोडती है हमें
ये करती हैं हम पर मेहरवानियाँ
याद आया खुदा पाकर तुम्हे
"कादर" परेशानियों को शुक्रिया शुक्रिया

केदारनाथ "कादर"

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Sunday, May 2, 2010

(कविता) -वसीयत

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लिख दी है वसीयत मेंने 
बेटे बेटी के नाम आज 
बढ़ा चढ़ा के क्या लिखूं 
अभी तलक का कमाया ही
साफ़ लिख दिया है करीने से
खुद ही सफेद पाठे पर नीली स्याही से
बँटवारा बराबरी का किया है मैंने
लड़ने की बात रखी ना बाकी
बड़े को ब्लॉगर,बेटी को ऑरकुट
पत्नी को फेसबुक थमा दी है
सोचता हूँ छुटके को ट्विटर देदूं,
पता सभी का एक रखा है
बदल बदल कर पासवर्ड  बाँट दिया
कर्जे में मकान किराया एक को
दूजे को बिजली की बाकियात मिली है
बेटी को अप्रकाशित उपन्यास हाथ लगा
और पत्नी को कवि सम्मेलनी कवितायें
छोटे पे मेरा दिल कुछ ज्यादा है
दूंगा उसे ही आदतें सारी मेरी अपनी
चाय की थड़ी पर गप्पेबाजी का आलम
जी-टॉक पर बातों का हूनर
और मिस कॉल मारने की मजबूरी
केवल दो उँगलियों से कि-बोर्ड चलाने की आदत 
भी उसी के हिस्से लिख दी है
सब कुछ तो लिख दिया है आज
रोजनामचे की तरह खरा-खरा
गाँव में पानी,बस और बिजली का इन्तजार
जानबुझ  कर दिया है शहर  में रहते बड़े बेटे को
सरकारी ऑफिसों की चक्करबाजी का गणित और
धड़ेबाजी वाला  समाजशास्त्र किसे दूं
समझ से परे लगता है इस पीढ़ी को
वसीयत  के ख़ास हिस्से को पढ़ने के लिए 
होता  नहीं कोई तैयार खुदा जाने
जहां लिखा है मेंने  बाप के मरणभोज में
बेचे पुस्तेनी मकान का हिसाब अब भी
और लिखा है कम उम्र में मां बनने से
मरी पहले वाली पत्नी की कहानी
सादे कागज़ की किनोरें गीली होने लगी है
वसीयत हाथ से ढ़ीली होने लगी है
दुःख  ज्यादा और सम्पति कम लिखी है मैंने
किराए का मकान और मालिक की धमकी
अभी लिखनी बाकी है वसीयत में मेरे
पत्नी को घर छोड़,महिला मित्रों से लम्बी बातें
लिखू कैसे डर लगता है थोड़ा सा
औरों की थाली में ज्यादा नज़र रखने 
वाली आँख़ें कौन नेत्र दान में लेगा मेरी
सोच रहा हूँ बैठा-बैठा
पड़ौसियों से किया अदाकारी का व्यवहार
और उधार के पैसों पर बेफिक्री की ज़िंदगी
इसी वसीयत का हिस्सा बना  है
तकिये के नीचे कुछ नहीं है अब 
तिजोरी की चाबी जैसा
ज़मीन में दबा नहीं रखा कुछ भी खोदने को
मेरे पास तो रही बाकी 
ज़िरो बैलेंस वाली संस्कृति
कोयले और चॉक से लिखे नामों सहित ऐतिहासिक इमारतें
लिख दिया  है आने वाली पीढ़ी के नाम 
प्लास्टिक की थैलियों से अटा पड़ा शहर का तालाब
नदी,नाला,सड़कें और 
समारोह में उड़ती फिरती प्लास्टिक की गिलासें 
नास्ते के भरोसे आयोजनों में मेरी भागीदारी 
और अखबारी खबर में मेरे  नाम
वाली कतरनें संभाल रखी है 
वसीयत में देने को
लेने को राजी नहीं कोई क्या करें
कुछ भी बाकी नहीं रखा है
माफ़ करना मेरे अपनों 
ज्य़ादा कमा नहीं पाया 
लिखने को वसीयत मेरी
वसीयत पूरी होती है 
 
रचना:माणिक

Wednesday, April 28, 2010

दर्द

दर्द क्या सिर्फ सहने के लिए होता है
या दर्द होता है इसलिए हम सहते हैं
दर्द को कोई दर्दवान ही समझता है
दर्द अपनी अपनी सोच पर निर्भर है

दर्द की परिसीमाएं और परिभाषाएं अपनी
किसी का दर्द, किसी के लिए काम है
दर्द बस दिलवालों का होता है ऐसा नहीं
बेदिल भी बेदर्दी होने के नाते इससे जुड़े हैं

कभी दर्द के, कभी खून के या मय के
बस दर्द के कारण ही, हम घूंट पीते हैं
हमें दर्द कभी तोड़ता है, कभी जोड़ता है
हमें मजबूर भी जीने के लिए दर्द करता है

दर्द मार भी डालता है, शर्म को, जिस्म को
या कभी कभी जमीर और इन्सान को
दर्द ही बनाता है मशीन एक इन्सान को
दर्द ही "कादर" मशीन से इन्सान बनाता है

केदारनाथ "कादर"
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आम आदमी

एक आम आदमी की जिद है
वो परेशान है सरकारी चाल से
वह जानना चाहता है -
सरकार आदमी के जीने के लिए,
क्या कोई अनुदान देती है ?
वह तो जानता है मरने के लिए,
सरकार आर्थिक मदद देती है I

आम आदमी का प्रश्न है -
क्या सरकार का काम मौत का संरक्षण है ?
या खुद आम आदमियों को मारना I
हाँ, नीतियाँ कुछ ऐसी ही हैं सरकार की,
वे मारना चाहते हैं आम आदमियों को
आसाम में, बंगाल में, कश्मीर में,
बिहार, आँध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ में-
ताकि देश में शांति हो शमशान जैसी I

इसलिए निहत्था आम आदमी
ढूंढ़ रहा है सरकार को ताकि-
उसके बन्दूक वाले आम आदमी
उसे मार दें एक सरकारी गोली
जिससे इलाके में शांति हो
और उसके पेट में चलता युद्ध
बंद हो, जो है भूख के खिलाफ
जो पल रही रंडी बन के
नेताओं के बिस्तरों पर I

केदारनाथ "कादर"
"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Friday, April 23, 2010

नए मानव का सृजन

आज अनेकों उपदेशक है धर्म के
किन्तु कोई भी नानक या कबीर नहीं
खेती की बात सभी करतें है लेकिन
मन के खेत सभी के हैं सूख
दुनिया की धन दौलत और मान के
सब के सब भूखे माया और मान के
कौन चाहता है शांति जीवन में ?कौन धर्म को होना चाहता है उपलब्ध ?कौन चाहता है सत्य का अन्वेषण ?कौन चाहता है मन भूमि का सिंचन ?चाहत है यदि परमेश्वर की मन में ?बीज सरलता का रखना होगा मन में
हृदय द्वार ईश्वर सब के खटकाता है
बीज प्रेम का समरूप सदा बिखरता है
किन्तु असत्य और धोखा मन का
इस बीज के अंकुर को खा जाता है
हृदय भूमि है जहाँ कठोर और काँटों भरी
सत्य नहीं उगता कभी ऐसे मन में
साधना हर स्वांस में जब होगी तभी
आराधना हर स्वांस में जब होगी तभी
मन के द्वार जब सब पे खुल जायंगे
मोक्ष और अपवर्ग सुख धरा पर आएंगे
हर जर्रा तभी तो बनेगा आफ़ताब
हम तभी सच में भारतीय बन पाएंगे
सत्य मिलन की अभिलाषा है यदि मन में
हल सरलता का चला डालो मन में
बीज परमेश्वर का पल्लवित पुष्पित होगा
फैल जाएगी सुगंध तब चहुँ ओर ही
तब उसी इश्वरत्व की सुगंध से
"
कादर" नए मानव का सृजन होगा
                      केदारनाथ "कादर"

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण