Wednesday, June 23, 2010

माया

खेल अनोखा पागल मन का , बिलकुल समझ न आये
पानी, पानी बिच रहे बुलबुला , काहे ये अलग कहाए

जीवन है क्षणभंगुर ऐसा , पानी के बुलबुले के जैसा
कुछ भी अलग नहीं दोनों में, बात समझ नहीं आये

मूल में आकर मिलना है, भेदन करके रूप नए का
द्वैत मिटाना है अंतर से , यही जीवन लीला कहलाये

मूल से मिल मूल जान ले, अलग नहीं तू सत्य मान ले
अलग अलग का भान ही तेरा, "कादर" माया कहलाये

केदारनाथ" कादर"kedarrcfdelhi.blogspot .com


"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

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