Tuesday, June 1, 2010

नेता जी के नाम

दोस्तों मेरी ये कविता उन नेताओं को समर्पित है जो शायद ही इसे समझ सकें, क्योंकि अगर वो समझ सकते तो ऐसी कविता मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं होती. आज केवल कुर्सी का खेल चल रहा है. सब एक दूसरे के चुतड पोंछ रहें हैं उन्ही गंदे सने हाथों से ताकि कोई भी ये न कह सके की हम साफ हैं. आज नेतागिरी के नाम पर बेगुनाह लोगों को जलाया जा रहा है. रोटी का इंतजाम करने के बजाय गोलियां बरसाई जा रही हैं. पीने के पानी की मांग करो तो वाटर केनन की मार मिलती है. जिस देश में "दूध बेचा पूत बेचा"
कहा जाता था वहां पर बोतल बंद पानी पंद्रह रुपये में मिलता है. आजादी के साठ साल बाद भी हर चौराहे पर भिखारी दिखाई देतें हैं. हर रोज़ अख़बारों में गंद भरा हुआ परोसा जाता है. समाज को राह दिखाने वाले अख़बार कॉल गर्ल्स के मसाज पार्लर के नंबर छापते हैं , देश को गर्त में धकेलने के लिए, न की उन लोगों का पता पुलिस को देते हैं , वृद्ध केसरी क्लब चला कर , बाप और दादा की हत्या को शहीदी का नाम देकर चंडी चमका रहे हैं. अगर उनके बाप या दादा ने अच्छा कम किया तो इसके लिए उन्हें धन्यवाद, लेकिन कभी ये भी सोचो किस मकसद से ये अख़बार चलाये थे उन्होंने. बाप बेटी साथ बैठकर अख़बार नहीं पढ़ सकते. कहने को हर एक मंत्रालय है, मंत्री हैं नेता हैं पर सब...साल...ए. ... अकल से पैदल सत्ता कामनी की गोद में अपने को स्खलित कर रहे हैं ताकि और भी खूंखार जानवर पैदा हों उनके दूषित रक्त से . कोई नेता तो पढ़ेगा नहीं . शायद कोई चमचा या दिल जला ही कभी उन्हें उनके कर्मों के दर्शन करा दे.


नफरतों से प्यार की, हर हद मिटा दी आपने
दिल में जो रोशन शमा थी वो बुझा दी आपने

जान की बाजी लगा दी आपकी हर बात पे
किस तरह ये जां बचे, कैसी सजा दी आपने

आपकी आमद से दिल का सुकून जाता रहा
जाने किन शैतानों को सदा दी आपने

जख्मे दिल खिल उठे, आपके इस प्यार से
जिंदगी की शक्ल में,क्या मौत दी है आपने

हर उजाला जिंदगी से दूरतर होने लगा
ऐसी बदअमनी हुज़ूर फैला दी है आपने

हम खुदा के बंदा-ए-नाचीज हैं और कुछ नहीं
"कादर" खुदकशी कर ले वो हालत बना दी आपने.

केदारनाथ "कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, May 24, 2010

टेंडर

जिंदगी के टेंडर में क्या स्पेसिफिकेशन सही थी ?
क्या ड्यू डेट सही थी ?ओपनिंग वेन्यु सही था ?
यही सवाल कौंधते रहते हैं, हर रोज़ इधर उधर,
परचेज आर्डर शायद सही ड्राफ्ट नहीं हुआ होगा I
तभी तो सामान की सपुर्दगी डिमांड के अनुसार नहीं,
"औडिट" कराना पड़ेगा, इन्सपेकशन में कोई कमी है I
"सेल्फलाइफ" एक्सपायर माल की डिलीवरी हुई है,
माल एक्सेपटेबल नहीं है, रिजेक्शन कर वापिस भेजिएI
पूरा जीवन परचेज की टर्म्स से भरा पड़ा है,
जीवन फाइल नहीं है पर नेगोशियेशन है I
आपकी असेप्टेबिलिटी "प्राईस रिडक्शन" पर हो सकती है,
दूसरा माल कोच में लगाना जरुरी है,
रिस्क परचेज मजबूरी है I
पर इंसान माल नहीं है, सामान और स्टोर नहीं है,
डिलीवर्ड स्टोर में दोष तो "कादर" मेन्युफेक्चरर का है I
प्रार्थना है अगली बार टेंडर सही होगा ,
अगर नहीं हो तो मुझे ही सेंपल मान लिया जाये इ

केदारनाथ"कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Sunday, May 23, 2010

Kabhi Alvida Na Kehna OLD



"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

सपने

आँखों ने मन ने मिल के
कैसे ये सपने बुने हैं
आंसुओं से नहाये हैं मेरे
इसलिए तो इतने नए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं

नींद आती नहीं है हमको
जागते जागते सो रहे हैं
डर लगता है सपनो से हमको
जखम सपनो ने हमको दिए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं
डरते हैं कहीं मिल न जाएँ
बड़ी मुश्किल से भुलाया है उनको
नाम उनका पुकारा किसी ने
जबाब हमने कितने दिए हैं
..... कैसे ये सपने बुने हैं
आइना भी बड़ा खुदगरज है
कैसी करता है हमसे ठिठोली
सामने जब भी होते हैं उसके
अक्स उसके ही इसने दिए हैं
.... कैसे ये सपने बुने हैं
मन मेरा मेरे वस् में नहीं है
ये मुझसे जुदा हो गया है
"कादर" किसी के सपनो में
नींद अपनी कोई खो गया है


केदारनाथ "कादर"








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Monday, May 17, 2010

भ्रष्टाचार

हम जितना सच से शरमाते जाते हैं
हम उतने ही सभ्य हुए से जाते हैं
नियमों और कानूनों में क्या रखा है?
झूठ से यारो माल कामये जाते हैं

जब भी पूछो वे हंसकर कहते हैं
पद सब कुछ है, नोटों का भी पेड़ यही
सोने चाँदी के ताजों से हैं सजे हुए
मित्वयी होने का जो पाठ पढाये जाते हैं

किस्मत रोज़ कहाँ लेती है अंगड़ाई
साधू भी कमसिन की बाँहों में पाए जाते हैं
जो करते निर्माण नियम कानूनों का
सदा तोड़ते उनको पाए जातें हैं

शब्दों की भी पीर उन्हें नहीं लगती है
गाँधी जी से कान खुजाये जाते हैं
कौन सुना करता है नीचे वाले की आवाज
नीचे वालों को तो सभी दवाये जाते हैं

महामारी है मन का काबू न रहना
संत लोग कब से बतलाये जाते हैं
व्यभिचार के भूत छिपे हर कोने में
भ्रष्टाचार का सिर सहलाये जाते हैं

दोषी तुम हो , दोषी हम हैं
चुप चुप सब सहते जाते हैं
कितने हैं हम सोच के अंधे
घाब कहीं, कहीं मरहम लगाये जाते हैं

ये स्मरण हमें रखना होगा
भ्रष्टाचार का दलन करना होगा
पूरा जीवन ही अध्यात्म है
हम फिर से दोहराए जाते हैं

यही पंथ है सर्वोन्नती का
स्वतंत्रता से चुनना होगा
"कादर" बात सभी लोगों को
कब से बताये जाते हैं

kedarnath"kadar"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण
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Monday, May 10, 2010

सोचता था उम्र भर, दीप बनकर जलूँ
बन ज्योति हाथ हाथों में लेकर चलूँ

मगर मुझको भी इस तिमिर ने छला
उजले घर , लेकिन सोच उज्वल कहाँ है

अब तो नज़रों का है धोखा भीड़ भी
भीड़ में भी शख्स अकेला ही खड़ा है

पास रहकर भी रहे हम दूर जैसे
संग सांसों के घुटन का सिलसिला है

काफिले कितने ही कायरों के है यहाँ
दोस्त भी पिछले मोड़ से मुड़ गया है

नींद नहीं ,तकिया कोहनी का लगाकर
डर लुटने का घर मन में कर गया है

सोचता हूँ कुछ धरोहर छोड़ने को लिखूं
"कादर" हर व्यथा जैसे मेरी ही कथा है

केदारनाथ "कादर"



"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण