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Monday, July 12, 2010

तुम

मेरे दिल में क्या है जो तुम देख पाते
खुदा की कसम तुम न यूँ रूठ पाते

तुम जो गए हो तो दिल है ये सूना
क्यूँ इतनी थी जल्दी कुछ तो बताते

है बेचैन दिल ये , नहीं चैन इसको
करें क्या हम कुछ समझ ही न पाते

तनहाइयों के रंग बड़े ही अज़ब हैं
जुदाई सहें कैसे हमें तू ही बता दे

अब छा गया है मेरे हर सू अँधेरा
खुशियों को तुम बिन कैसे सदा दें

तुम ही हो साज इस जीवन के मेरे
"कादर" कैसे सजें सुर तू ही बता दे

केदारनाथ"कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Wednesday, June 30, 2010

टोपी धारी किन्नर

तुम प्रजातंत्र का नाम लेकर
पीटते रहो ढोल वाह वाही के
और वो तुम्हारे देश में ही
पले कुत्ते , देखें तुम्हे घूरकर
झाग उगलते चीखते चिल्लाते
कहते रहो- देश को माँ भारती
वो तुम्हारा राष्ट्रीयगान नहीं गायेंगे
पोंछेंगे तुम्हारे झंडे से अपने जूते
तुम अहिंसा का राग अलापते हो
अहिंसा कायरो को शोभा नहीं देती
तुम्हे कश्मीर में सरकार चाहिए अपनी
इसलिए बेच दी है भावनाएं देश की
तुम समझौता चाहते हो देशद्रोहियों से
कर साल अरबों रुपये लुटाते हो उनपर
वो तुमपर थूकते हैं, भागते हैं पाकिस्तान
सीखने नए पैंतरे तुम्हे काटने के लिए
तुम्हारे अपने देश के कश्मीरी बच्चे
बिकते हैं सिर्फ दो दो सौ रपये में
मारने को पत्थर तुम्हारे जवानों पर
बैठे रहो सीमाओं पर करते रहो रक्षा
बाहर को देखते हुए अपने दुश्मन
और वो साले लड़ाते रहें तुम्हें
धर्म और इस्लाम के नाम पर
वो इस्लाम का "इ" नहीं जानते
मगर जानते हैं तुम्हारी कमजोरी
जीतकर हारने की तुम्हारी आदत
देखते रहो सपना पूरे कश्मीर का
बिना कुर्वानी कुछ नहीं मिलता
शिखंडी सरकार के नुमाइन्दे सिर्फ
भौंकना जानते हैं, सिपाहियों से घिरे
कभी कुछ बोल भी दिया जोश में
आलाकमान बुलाकर धमका देती है
अरे कुर्सी से चिपके हुए पिस्सुओ
तुम से कुछ नहीं होता तो छोड़ दो
आगे आने दो हिजड़ों को भी
शायद वो ही बचा सकें देश की इज्ज़त
क्योंकि उनके मरने पर कोई नहीं रोता
अपने क्रिया कलापों से तुम ही हो
इस संसद के टोपी धारी किन्नर

केदारनाथ" कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Wednesday, June 23, 2010

माया

खेल अनोखा पागल मन का , बिलकुल समझ न आये
पानी, पानी बिच रहे बुलबुला , काहे ये अलग कहाए

जीवन है क्षणभंगुर ऐसा , पानी के बुलबुले के जैसा
कुछ भी अलग नहीं दोनों में, बात समझ नहीं आये

मूल में आकर मिलना है, भेदन करके रूप नए का
द्वैत मिटाना है अंतर से , यही जीवन लीला कहलाये

मूल से मिल मूल जान ले, अलग नहीं तू सत्य मान ले
अलग अलग का भान ही तेरा, "कादर" माया कहलाये

केदारनाथ" कादर"kedarrcfdelhi.blogspot .com


"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, June 21, 2010

सदा ए वक़्त

जब तलक फिर से लहू बहाया न जायेगा
मुल्क बरबादियों से बचाया न जायेगा

किससे करें शिकायत, शिकवा, सब हैं चुप
बिन शोर नाखुदाओं को जगाया न जायेगा

माना हैं बिगड़े मुल्क के मेरे हालात दोस्तों
क्या एक नया इन्कलाब लाया न जायेगा

खुदगर्ज़ रहबरों की है बारात मुल्क में
क्या फ़र्ज़ का सलीका सिखाया न जायेगा

जब तक सुकून से नहीं मुल्क का हर शख्स
सोने का फ़र्ज़ "कादर" निभाया न जायेगा

केदारनाथ" कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Tuesday, June 15, 2010

ज़िक्र न करना


उसने कहा है देके कसम, मेरा ज़िक्र न करना
आ जाये गम गले तक भी, मेरा ज़िक्र न करना

माना अकेले होंगे तुम, हर मोड़ पर -ऐ- दोस्त
रूह जब्त न कर पाएगी सितम, मेरा ज़िक्र न करना

आँखों में उमड़ते रहें चाहे तेरी, अश्कों के समंदर
तुम डूबती कश्तियों से भी, मेरा ज़िक्र न करना

दुश्मन से न कहना बर्बादे मुहब्बत का ये किस्सा
खामोश निग़ाह दोस्तों से भी, मेरा ज़िक्र न करना

न सोचना की अंधेरों में, अकेले हैं हम कहीं
तेरा रोशन चिरागे याद है, मेरा ज़िक्र न करना

हम खुद ही हुए जाते हैं दफ़न अपने सीने में
"कादर" हों सामने भी अगर, मेरा जिक्र न करना


केदारनाथ"कादर"
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Wednesday, June 9, 2010

मरा हुआ प्रजातंत्र

तुम्हारा प्रजातंत्र - सिर्फ एक
बुचडखाने की तरह है
जिसके अन्दर हर एक नेता
सफ़ेद कपडे पहने कसाई है
जो जिबह कर देना चाहता है
तुम्हारी हर ख़ुशी- सिर्फ
अपनी ख़ुशी और कुर्सी के लिए
वो निकाल लेना चाहता है -चूसकर
तुम्हारी हड्डियों की मज्जा -ताकि
चिपका रहे कुर्सी से -उल्लू
अपनी मौत तक -तुम्हारी बद्दुआओं से

बहुत खुश होते हो
सबसा बड़ा प्रजातंत्र कहलवाकर
कौन सा तंत्र तुम्हारा काम करता है
न व्यवस्था ,न न्याय और न खुफिया
हर जगह मच्छर से देश
तुम्हारे शरीर पर काटतें हैं
तुम सिर्फ खुजाकर रह जाते हो

तुम्हारे देश के हिजड़े न्यायतंत्र की ताकत
पच्चीस वर्ष बाद २५ हजार मौतों का न्याय
एक देश तुम्हे भूलने को कहता है
तुम्हारी २५ हजार मौतें अतीत मानकर
और तुम भी तैयार हो,कोई सौदा हो जाये
तुम्हारे नेता खा लें -घूस मोटी सी
बनने के लिए मुखिया हिजड़ों की पार्टी का

तुम कानून हाथ में मत लेना
भोपाल में तुम्हारा कोई थोड़े ही मरा था
वो तो भोपाल वाले सोचेंगे
मंच बनायेंगे , प्रजातंत्र हिला देंगे-चीखेंगे
सरकार गिरा देंगे- बार बार चिल्लायेंगे
साले वो भी विपक्ष के कहने पर

तुम ने गिरवी रख दिया है- साहस
बेच दी है-आवाज, पहनी हैं -चूड़ियाँ
तुम अपने देशवासियों के लिए
आवाज नहीं उठा सकते
तुम नपुंसक - प्रजातंत्र का राग अलापते रहो
वो तुम्हारी बहन बेटे बेटियां मारकर
कहते रहेंगे- भूल जाओ पुरानी बातें

नया समझौता जरुरी है- दलाली के लिए
ताकि प्रजातंत्र के पिस्सुयों की औलादें
जिन्दा रह सके, पाप की कमाई की दलाली पर
ऊँचे महलों में, मर्सिडीज गाड़ियों में
हमारी तुम्हारी माँ बेटियों को
कुचलने नोचने के लिए सदा की तरह

मगर तुम मत सोचना , मत जागना
ये प्रजातंत्र है हर काम- नेता करेगा
इसीलिए तो अब इन्सान पैदा नहीं होते
पैदा होते हैं नेता , गली में , नुक्कड़ पर
अभाव की कोख से जन्मे -नाजायज, भूखे
नाख़ून दिखाते , झाग उगलते, बाल नोंचते
तुम्हारा प्रजातंत्र बचाने के लिए
जो बस देख रहे हैं अर्थव्यवस्था की ऊंचाई
जैसे एक बालक- खेत की मेढ़ पर
अपना शिशन पकडे देखता है मूत की धार
जो निचे आते आते रेत हो चुका होता है

केदारनाथ"कादर"
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Tuesday, June 1, 2010

नेता जी के नाम

दोस्तों मेरी ये कविता उन नेताओं को समर्पित है जो शायद ही इसे समझ सकें, क्योंकि अगर वो समझ सकते तो ऐसी कविता मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं होती. आज केवल कुर्सी का खेल चल रहा है. सब एक दूसरे के चुतड पोंछ रहें हैं उन्ही गंदे सने हाथों से ताकि कोई भी ये न कह सके की हम साफ हैं. आज नेतागिरी के नाम पर बेगुनाह लोगों को जलाया जा रहा है. रोटी का इंतजाम करने के बजाय गोलियां बरसाई जा रही हैं. पीने के पानी की मांग करो तो वाटर केनन की मार मिलती है. जिस देश में "दूध बेचा पूत बेचा"
कहा जाता था वहां पर बोतल बंद पानी पंद्रह रुपये में मिलता है. आजादी के साठ साल बाद भी हर चौराहे पर भिखारी दिखाई देतें हैं. हर रोज़ अख़बारों में गंद भरा हुआ परोसा जाता है. समाज को राह दिखाने वाले अख़बार कॉल गर्ल्स के मसाज पार्लर के नंबर छापते हैं , देश को गर्त में धकेलने के लिए, न की उन लोगों का पता पुलिस को देते हैं , वृद्ध केसरी क्लब चला कर , बाप और दादा की हत्या को शहीदी का नाम देकर चंडी चमका रहे हैं. अगर उनके बाप या दादा ने अच्छा कम किया तो इसके लिए उन्हें धन्यवाद, लेकिन कभी ये भी सोचो किस मकसद से ये अख़बार चलाये थे उन्होंने. बाप बेटी साथ बैठकर अख़बार नहीं पढ़ सकते. कहने को हर एक मंत्रालय है, मंत्री हैं नेता हैं पर सब...साल...ए. ... अकल से पैदल सत्ता कामनी की गोद में अपने को स्खलित कर रहे हैं ताकि और भी खूंखार जानवर पैदा हों उनके दूषित रक्त से . कोई नेता तो पढ़ेगा नहीं . शायद कोई चमचा या दिल जला ही कभी उन्हें उनके कर्मों के दर्शन करा दे.


नफरतों से प्यार की, हर हद मिटा दी आपने
दिल में जो रोशन शमा थी वो बुझा दी आपने

जान की बाजी लगा दी आपकी हर बात पे
किस तरह ये जां बचे, कैसी सजा दी आपने

आपकी आमद से दिल का सुकून जाता रहा
जाने किन शैतानों को सदा दी आपने

जख्मे दिल खिल उठे, आपके इस प्यार से
जिंदगी की शक्ल में,क्या मौत दी है आपने

हर उजाला जिंदगी से दूरतर होने लगा
ऐसी बदअमनी हुज़ूर फैला दी है आपने

हम खुदा के बंदा-ए-नाचीज हैं और कुछ नहीं
"कादर" खुदकशी कर ले वो हालत बना दी आपने.

केदारनाथ "कादर"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Monday, May 24, 2010

टेंडर

जिंदगी के टेंडर में क्या स्पेसिफिकेशन सही थी ?
क्या ड्यू डेट सही थी ?ओपनिंग वेन्यु सही था ?
यही सवाल कौंधते रहते हैं, हर रोज़ इधर उधर,
परचेज आर्डर शायद सही ड्राफ्ट नहीं हुआ होगा I
तभी तो सामान की सपुर्दगी डिमांड के अनुसार नहीं,
"औडिट" कराना पड़ेगा, इन्सपेकशन में कोई कमी है I
"सेल्फलाइफ" एक्सपायर माल की डिलीवरी हुई है,
माल एक्सेपटेबल नहीं है, रिजेक्शन कर वापिस भेजिएI
पूरा जीवन परचेज की टर्म्स से भरा पड़ा है,
जीवन फाइल नहीं है पर नेगोशियेशन है I
आपकी असेप्टेबिलिटी "प्राईस रिडक्शन" पर हो सकती है,
दूसरा माल कोच में लगाना जरुरी है,
रिस्क परचेज मजबूरी है I
पर इंसान माल नहीं है, सामान और स्टोर नहीं है,
डिलीवर्ड स्टोर में दोष तो "कादर" मेन्युफेक्चरर का है I
प्रार्थना है अगली बार टेंडर सही होगा ,
अगर नहीं हो तो मुझे ही सेंपल मान लिया जाये इ

केदारनाथ"कादर"
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Monday, May 17, 2010

भ्रष्टाचार

हम जितना सच से शरमाते जाते हैं
हम उतने ही सभ्य हुए से जाते हैं
नियमों और कानूनों में क्या रखा है?
झूठ से यारो माल कामये जाते हैं

जब भी पूछो वे हंसकर कहते हैं
पद सब कुछ है, नोटों का भी पेड़ यही
सोने चाँदी के ताजों से हैं सजे हुए
मित्वयी होने का जो पाठ पढाये जाते हैं

किस्मत रोज़ कहाँ लेती है अंगड़ाई
साधू भी कमसिन की बाँहों में पाए जाते हैं
जो करते निर्माण नियम कानूनों का
सदा तोड़ते उनको पाए जातें हैं

शब्दों की भी पीर उन्हें नहीं लगती है
गाँधी जी से कान खुजाये जाते हैं
कौन सुना करता है नीचे वाले की आवाज
नीचे वालों को तो सभी दवाये जाते हैं

महामारी है मन का काबू न रहना
संत लोग कब से बतलाये जाते हैं
व्यभिचार के भूत छिपे हर कोने में
भ्रष्टाचार का सिर सहलाये जाते हैं

दोषी तुम हो , दोषी हम हैं
चुप चुप सब सहते जाते हैं
कितने हैं हम सोच के अंधे
घाब कहीं, कहीं मरहम लगाये जाते हैं

ये स्मरण हमें रखना होगा
भ्रष्टाचार का दलन करना होगा
पूरा जीवन ही अध्यात्म है
हम फिर से दोहराए जाते हैं

यही पंथ है सर्वोन्नती का
स्वतंत्रता से चुनना होगा
"कादर" बात सभी लोगों को
कब से बताये जाते हैं

kedarnath"kadar"
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"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Thursday, May 6, 2010

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था

प्यार में पत्थर मिलेंगे क्या तुम्हे मालूम था
दिल लुटाने वाला भी हमसा कोई मासूम था

प्रेम का दरिया बनकर कोई उमड़ा क्या करें
दिल मेरा छोटा प्यार तेरा कहाँ समाएगा

देख आँखों में मेरी सागर तुझे मिल जायेगा
दर्द ही नहीं प्यार में करार भी मिल जायेगा

दर्द सिने का मेरे तुमको जब लगेगा अपना सा
तब इन लफ़्ज़ों का फासला भी फ़ना हो जायेगा

मगरूर न कहना हमें बन्दे खुदा के हम भी हैं
मुहब्बत में "कादर" दिलबर में खुदा मिल जायेगा

केदारनाथ "कादर"

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है !इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!" युगदर्पण

Tuesday, March 16, 2010

कविता में सच

छंदों में लिखता है कोई,
छापता है कोई लंबी कविता
 आज भी,
बंद कमरों में अपने-अपने,
बुन रहे हैं जीवनगाथा,
साफ़-साफ़ बात यही पर,
पढ़ता नहीं कोई दूजे का लिखा,
समझता है अछूत की तरह,
बैठकर कुछ देर,
बस पलट लेता है पन्ने,
दिलाने को दिलासा एकबार,
खेल रहें हैं सब शब्दों से,
पंक्ति-पंक्ति छांट रहे,
कोई गढ़ रहा गांव,गीतों में,
दीवारें पोत रहा कोई शहरों की,
यही गीत की किस्मत बन गई,
यही कविता का कायदा,
मुरझाये हैं गीत कई,
छपी और दबी किताबों में,
अलमारी भरी है सबकी,
बस ताला बाकी रह गया,
देखता है मेहमान आता जाता,
उठाता नहीं कोई भी,
किताब,जी बहलाने को ही,
मेलझोल का खेल यहां सब,
बेतालों का काम नहीं,
मिलने वाले छप जाते हैं,
लिखने वाले रह जाते,
आज पुराने गीत कहां,
बीत गई कवितायें भी,
कहानी उमड़ रही अब तो,
बचीकुची अभिलाषा से,
सुर मिलाता रहता हूं मैं भी,
अब तो मेले,हाट-बाज़ारों में,
फ़िर फ़िर गाता वही मैं,
पढ़ा कभी जो किताबों से,
इन दिनों नाही पूछो,
गीत,
बनते और बिगड़ते देखे
हमने शब्द उमड़ते देखे हैं,
ताल बदलती देखी है,
गीतों के ताने बाने से,
कहीं राह बदलती देखी है,
झांकता है जीवन सदा ही,
कौमा लगे आखर के बाद वाली पंक्ति से,
आज भी देख रहा है टुकुर-टुकुर,
किसी के गीत प्रेम रंगे हैं,
कोई फ़िरता बेरंग खुलेआम,
दर्दभरे हैं गीत किसी के,
कोई खुशियों के पार खड़ा है,
इस आलम से तपती धरती,
सफ़र के बीच रूका ना कोई,
चलते मिले मुसाफ़िर रोज़,
इसी सफ़र में चलते-चलते,
पड़ी आवाज़ फ़िर कानों में,
बचपन वाली गलियों की,
याद कविता आती है,
बालसभा में गाई थी कभी,
पड़ौसी देवरे के कुछेक भजन भी,
याददाश्त का हिस्सा हैं,
याद आते हैं कभी किलकारते बच्चे,
और शादी-ब्याह के गीत भी,
सोचता हूं आज भी,
चुनकर कुछ शब्द उसी इलाके के,
पूरा कर दूं गीत मेरा,
अधूरा जो पड़ा रहा अबतक,
पता नही वक्त कब आयेगा,
बस आस लगाये बैठा हूं,
इन्तजार की इन राहों में
अबतक रीता बीत गया,
जीवन अपना खाली,
अब लगा कुछ धूप खिली है,
फूल खिले फ़िर बगियां के,
पड़ौस का शीशम सूझा रहा है,
नई पंक्ति,और छंद नया,
डाली अपनी ओर झुकाकर थोड़ी दूरी पर,
शब्द खड़े हैं फ़िर देहरी पर,
छंद नया बनाने को,
रखा संभालकर अपना लिखा,
अब तक यूं अलमारी में,
कहा था कभी किसी जानकार ने,
गीत,कविता छूपा के रख दो,
जल्दी क्या है,पकने दो थोड़ा,
दरवाजा खोला अरसे के बाद आज़,
बड़ी बेताबी से गले मिली,
रचनायें मेरी,
पकी हुई थी कुछ पीली-पीली,
सजकर थी पूरी तैयार,
जाने को महफ़िल,सभा और मण्डप में
भरने,जीतने और सिर उठाकर,
चलने को एक बार फ़िर,
यही गीत की किस्मत थी,
और यही अनौखा जीवन उसका.....................
















सादर,
माणिक
आकाशवाणी ,स्पिक मैके और अध्यापन से सीधा जुड़ाव साथ ही कई गैर सरकारी मंचों से अनौपचारिक जुड़ाव
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