Sunday, February 28, 2010

होली है.....! उल्लास का पर्व है, हुडदंग नहीं, उल्लास और शालीनता से मनाएं; अखिल विश्व में विराजे हिन्दुओं को युगदर्पण परिवार की ओर से, सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनायें !!

तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, (yugdarpanh@gmail/yahoo.com

Tuesday, February 23, 2010

Tuesday, 23 February 2010


अधूरे -पूरे

मैं उसे देखकर व्यथित था
उसकी उम्र और देह गोलाइयों से
उसमे क्या कोई भी कमी थी
बस वह चल ही तो नहीं सकती थी

हाँ वह विकलांग थी पैरों से
मुस्कुराती थी बहुत बातें बनाती थी
रोज़ मिलती थी मुझे बस स्टैंड पर
वह वैसाखियों से चलती थी

हाँ वह वैसाखियों से सिर्फ चलती थी
लेकिन उसकी तमन्ना थी उड़ने की
उसके विचार थे प्रेम से सने
वह दयामूर्ति थी दया की पात्र नहीं

हाँ, वह दया की पात्र नहीं थी
वह अन्दर से मजबूत और उत्साही थी
वह जीवन सिखाने आई थी
अपनी मौजूद सभी कमियों के साथ

हाँ अपनी सभी कमियों के साथ जीना
जान लेने के बाद बड़ा मुश्किल होता है
लड़ना खुद से आसन कहाँ होता है
वह लडती थी दौड़ती दुनियां से

हाँ वह लडती थी दौड़ती दुनियां से
उसमे जज्बा था कन्धा मिलाके चलने का
उसे कमी का एहसास ही नहीं था
उसकी शादी होने वाली थी

हाँ उसकी शादी होने वाली थी
जाने वाली थी एक नई दुनिया में
मगर आधे अधूरी सोच के लोगों ने
अपने जैसा मानने की कीमत मांगी

हाँ अधूरे लोगों ने पूरा मानने की कीमत
लेकिन अधूरे लोगों की पूरी बात गलत थी
उसके मां बाप उसे पूरा करते करते
क़र्ज़ से खुद अधूरे हो गए थे

हाँ क़र्ज़ के बोझ से अधूरे मां बाप
पैसे से उसकी ख़ुशी खरीदना चाहते थे
दिखने वाले पुरे लोगों सा दर्ज़ा दिलाकर
उसने इंकार कर दिया पूरा बनने से

हाँ वह पैसों की वैसाखी से पूरा नहीं बनी
मुझे पता चला एक रोज़ उसी से
उसने एक अपने जैसे अधूरे को चुना
आज वह उसे पति कहती है गर्व से

हाँ उसका विरोध "पूरे लोगों की भीड़" से
शायद पैसों की वैसाखी से भी हार जाता
मगर मन का विद्रोह उसका जाग्रत
दो अधूरों को एक पूरा कर गया

हाँ, उसकी सोच पूरे लोगों के लिए
चुनौती है अधूरा जीवन जीने वालों को
लोग शरीर से विकलांग अच्छे हैं
"कादर" सोच से विकलांगों का क्या करें

केदार नाथ "कादर"

Wednesday, February 17, 2010

हम भी खुदा

     हम भी खुदा
हम पागल हैं या वो बहरे,
असर नहीं क्यूँ होता है ?
प्यार में पागल हर कोई
क्यूँ सौ सौ आँसू रोता है ?
          आँसू क्यूँ आते हैं सोचो ?
          सपने धोने की खातिर
          बिन सपनोंवाला भी सोचो
          क्या कोई इंसा होता है ?
 हर एक का सपना लड़ता है
 बेबात ही मेरे सपनों से
 सपनों को बचाने की खातिर
 ग़दर दिलों का होता है
          ग़दर गलत है अपनी खातिर
          हर कोई ये समझाता है
         लड़ी न जिसने जंग कोई भी
         वो ही जनरल कहलाता है
 हम पागल हैं, हम लडतें हैं
 हमने ही सपने पाले हैं
 "कादर" है मतवाला मजनू
 खुदा भी हम सा होता है
केदार नाथ "कादर"

Wednesday, January 20, 2010

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किन्तु जीवन ठिठोली नहीं है, न बना दी जाए!.इस पूरी
शृंखला में भारत की सभी प्रकार की पीड़ाकी अभिव्यक्ति
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--युगदर्पण समाचार पत्र समूह

तिलक राज रेलन सम्पादक- युग दर्पण
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